शनिवार, 30 मई 2009

ख्वाहिश है

उस बेदाग़ नूर को ,
आखों से छूने की ख्वाहिश है |
प्यार की जो रिम झिम बारिश है ,
उसमे भीग जाने की ख्वाहिश है |

बहुत चालाक है |
पर उसका दूर दूर रहना ,
एक नाकाम साज़िश है |

गर मिल जाए एक रोज़ ,
तो तन्हाई , गज़लें ,
सब खुदा हाफिज़ हैं |

राह चलते चलते ,
रुक कर , मुड कर देखना सब वाजिब है |
बस उस नूर को ,
आखों से छूने की ख्वाहिश है |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

गुरुवार, 28 मई 2009

मैं हूँ |

कोई कहे कभी ,
होशियार , तैयार कौन है ?
हटा कर भीड़ को किनारे ,
बोल मैं हूँ |

सोच ले ऐसा ही रहूँगा ,
चाहे जिस हाल में रहूँ |
पूरा करूँगा उसको ,
एक बार जो ठान लूँ |

तेरी जीत न होगी ,
कह , यह कैसे मान लूँ ?
रुको , ज़रा पहले इन ,
रास्तों को पहचान लूँ |

कह , आए जो भी आगे ,
पूरे जोर से टकरा लूँ |
सुन पुकार स्वीकार कर ,
बोल मैं हूँ |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

बुधवार, 27 मई 2009

शब्द खोजता हूँ |

अब न लिखूंगा यह बात मैं ,
हर रोज़ सोचता हूँ |
पर मन नही मानता और मैं ,
लिखने को शब्द खोजता हूँ |

हर कृति के साथ ,
अन्दर का कवि सो जाता है |
जग जाता है पर ख़ुद ही ,
ऐसा कुछ हो जाता है |

जो कुछ होता जीवन में ,
वे दृश्य बन जुड़ जाते हैं |
फ़िर कविता बन मुझसे ,
उमड़ उमड़ आते हैं |

कलम उठाने से खुदको ,
मैं बहुत रोकता हूँ |
पर मन नहीं मानता और मैं ,
लिखने को शब्द खोजता हूँ |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

तलाश है

जो शायद दूर है कहीं ,
या मेरे आस पास है |
महका दे मेरी ज़िन्दगी ,
उस अदद ग़ज़ल की तलाश है |

बदल बदल कर लफ्जों को ,
उसको बयाँ करता हूँ |
हरेक शक्ल में उसकी ,
परछाई ढूँढा करता हूँ |

उसकी अदा, अंदाजों को ,
जी भर देखना चाहता हूँ |
उस नगमे, संगीत को ,
सहेजकर रखना चाहता हूँ |

मिलेगी कभी न कभी ,
इसका मुझे एहसास है |
ढूंढो तो खुदा भी मिलते हैं ,
मुझे तो बस, एक ग़ज़ल की तलाश है |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

मंगलवार, 26 मई 2009

कह चुका

अब न कहूँगा फ़िर से ,
जो मैं कह चुका |
कितना बर्दाश्त करूँ ,
मैं बहुत सह चुका |

बेकार के ख्यालों में ,
क्यूँ में डूबता रहा ?
हाँ हाँ , सच है यह ,
क्यूँ मैं कहता रहा ?

कितना पागलपन लिए ,
मैं फिरता रहा |
माफ़ करना , उस पागलपन के ,
छन्द लिखता रहा |

अब कुछ न हो सकेगा मुझसे ,
बहुत पानी बह चुका |
अब कहूँगा फ़िर से ,
जो मैं कह चुका |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

रविवार, 24 मई 2009

यह बसंत कैसे आई है ?

क्या आज दिन कुछ ख़ास है ?
हवा में गज़ब की ताजगी ,
और घुलती जा रही मिठास है |

आसमान ज्यादा नीला है शायद ,
और धूप में गुनगुनापन है |
सडको के गड्ढों में इत्र फुलेल भरा है ,
किसलिए यह इंतजाम करा है ?

पेडों पर अचानक बहार आ गई ,
बह रही पुरवाई है |
देखो दूर कहीं से ,
मधुर ध्वनी आई है |

फूल खिल उठे हैं सैकडों ,
भंवरें की मौज आई है |
अभी तो कुछ और मौसम था ,
यह बसंत कैसे आई है ?

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

सुरकंडा देवी का प्रसाद |

यह मेरे आज २४ - ०५ -२००९ के माता सुरकंडा की यात्रा के अनुभवों पर आधारित है |


आज सुबह ही से , जाने कितने संयोग हुए ?
हैरान हूँ मैं , इस दिन में ,
जाने क्या क्या पाया ?
एक ही दिन में , कितनो से मिल आया !

एक एक करके आपने ,
कितने आश्चर्य आज दिए ?
विस्मित होकर मैंने वह ,
बढ़ा कर अपने हाथ लिए |

वो हमेशा आप थीं माँ ,
जो इतना सब हो सका |
मैंने बस उतना किया ,
जितना मुझसे हो सका |

अब समझ गया हूँ सब कुछ ,
और बस यही प्रार्थना करता हूँ |
मुझ पर दृष्टि बनाए रखना ,
मैं फ़िर आने का प्रयत्न करता हूँ |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

लहरें !

शांत कभी , कभी तूफ़ान सी ,
कितने रूप लिए हैं लहरें ?
कभी रेंगती , कभी उफनती ,
ना ना स्वरुप लिए हैं लहरें |

इनके तेज़ से घबराना ,
यह बस इनका प्यार है |
भंवर बनते जो कहीं ,
वह प्यार का इकरार है |

इनके बीच जो कोई जाता ,
आदर भाव से बुलाती हैं |
भर भर कर आलिंगन में ,
मस्ती में झुलाती हैं |

रोके ना रूकती यह ,
तो बस बह जाती हैं|
रुकना नही , चलना है जीवन ,
हमको यह समझाती हैं |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

गुरुवार, 21 मई 2009

कम पड़ गया |

तान सीना , हाथ तलवार ले ,
युद्घ मैं लड़ गया |
पर कहीं शायद मेरा ,
प्रयास कम पड़ गया |

अंत समय तक मैंने ख़ुद को ,
थकने न तनिक दिया |
उस क्रूर शत्रु ने ,
वार अधिक और अधिक किया |

बचा न यहाँ कोई साथी ,
अकेला ही बढ़ गया |
कितना चलता आगे , कुछ देर बाद ,
पत्थर बन कर जड़ गया |

मुझे गर्व है की मैं ,
पूरे दम से लड़ गया |
पर दर्द बस इतना है की ,
प्रयास कम पड़ गया |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

मिटा दे

कितनी बातें भूलने लायक ,
आज उन्हें सब मिटा दे |
खोद ले यादों की कब्र ,
आज उसमें उन्हें लिटा दे |

काँटा बनकर तेरे दिल में ,
जो कबसे चुभती रही |
विष बनकर तेरे जीवन में ,
जो कबसे घुलती रही |

बोझ बनाकर जिसको तू ,
इतनी दूर ढो चुका |
सताया बहुत है तुझको,
पर अब बहुत हो चुका |

कर एक शुरुवात नई ,
बेडियों को , कह अलविदा दे |
चुन उन यादों को जीवन से ,
आज उन्हें सब मिटा दे |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

बुधवार, 20 मई 2009

बोल तू |

अपनी चुप्पी के रहस्य को ,
आज दे खोल तू |
कुछ भी हो सही ,
पर आज मुझसे बोल तू |

मेरे धैर्य को , औरों की अधीरता से ,
आज ले तोल तू |
मेरी प्यास का , औरों की लिप्सा से ,
आज लगा ले मोल तू |

कबसे खड़ा हूँ तेरे लिए ,
देख आँखें खोल तू |
हद हो गई , इंतज़ार की ,
आज मुझसे बोल तू |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

पल जो बीत गया |

वह पल , वह पल जो बीत गया |
गाने , भुलाने को , दे कितने गीत गया |

कभी दुश्मन मेरा , कभी बन मीत गया |
अभी तो खडा था यहाँ , और तुंरत ही रीत गया |

अपने आप में यह कितने रंग समेटे है |
कभी दिखता जीवंत , कभी शोक लपेटे है |

अपने जाने के साथ ही , कितनी यादें दे जाता है ?
कुछ खट्टी , कुछ मीठी बातें दे जाता है |

बहुत बुलाया वापस इसको , पर इस जिद में ,
यह मुझसे जीत गया |
वह पल , वह पल जो बीत गया |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

सोमवार, 18 मई 2009

मुसाफिर हो नाम चला |

सुबह चला , शाम चला ,
कितने मील अविराम चला |
चलने चलने से मेरा ,
मुसाफिर हो नाम चला |

आग बरसाते रेगिस्तान में ,
कब कहो आराम मिला ?
पर इस सफर से ही मुझको ,
एक नया आयाम मिला |

सहज मिल जाए जो ख़ुद को ,
उस चीज़ में क्या मज़ा हुआ ?
कोशिश कर , पाया जिसको ,
वही इनाम है सजा हुआ |

इसी धुन को रटते रहना ,
अब मेरा हो काम चला |
चलने चलने से मेरा ,
मुसाफिर हो नाम चला |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

रविवार, 17 मई 2009

ऋण मैंने उतार दिया |

परीक्षा देकर आज एक ,
ऋण मैंने उतार दिया |
कटु था उसका स्वभाव ,
पर मैंने पूरा सत्कार किया |


इतनी कड़ी स्पर्धा जिसने ,
तोड़ मुझे तार तार किया |
इतने लोगों के आगे ,
खड़ा मुझे लाचार किया |

जला जला करके खुदको ,
इस दिन के लिए तैयार किया |
ठीक ठाक गुज़र गया यह ,
प्रभु का प्रकट , आभार किया |

बड़ी परीक्षा थी यह ,
मन भीतर तक कंपा दिया |
समेट खुदको, दिया इसको ,
अब बस, ऋण मैंने उतार दिया |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

शनिवार, 16 मई 2009

कल की चिंता |

जितनी भी तैयारी हो इंसां की ,
कल की चिंता बनी रहती है |
धीमी सी आंच उसके ,
सीने में जली रहती है |

आकांक्षाएं इस आग में ,
घी का काम करती हैं |
ऐसा डर है कल का ,
आशा भी आने से डरती है |

हमेशा से ही इंसा को ,
कल ने परेशान किया है |
व्याकुलता बढ़ा बढ़ा कर ,
छगन भग्न सब ध्यान किया है |

खूब कहा है किसीने ,
चिता समान है यह चिंता|
लाख भागो इससे ,
पर होनी ही है , होती ही है |
ऐसी चीज़ है कल की चिंता |


अक्षत डबराल
"निःशब्द"

स्वीकार कर |

खींच अपनी भुजाओं की शक्ति ,
आज एक हुंकार भर |
चुनौती आई है युद्घ की ,
भर सीना , स्वीकार कर |

वीर कौशल की कहानियाँ ,
सुन ली होंगी बहुत |
एक कथा और विजय की ,
लिख दे अब ख़ुद |

यह विशेष समय है ,
यूँ न बेकार कर |
परीक्षा की घड़ी है ,
ध्यान लगा , स्वीकार कर |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

गुरुवार, 14 मई 2009

बह चला |

इन हसीन नज़ारों से ,
करीब दोस्तों और यारों से ,
अलविदा कह चला |
आ गई है वह लहर ,
अब लो मैं बह चला |


मित्रों , तुम्हारा साथ सुंदर था |
वक्त कैसे कट गया ?
पता ही नही चला |
अपनी भूल चूक माफ़ कर चला ,
अब लो मैं बह चला |


जिसके लिए , मैं कबसे तैयार था |
हरदम , हरपल करता इंतज़ार था ,
गया वह ज्वार भाटा |
उसमें हाथ पाँव थोड़े चला ,
अब लो मैं बह चला |

मेरी याद जो कभी आये ,
बिछडी यादों के दीप बनाके ,
सीने में लेना जला |
मिल न सकूँगा ,याद करूँगा ,
अब तो मैं बह चला |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

मेरे साथ है |

मुझे यही लगता रहा ,
अकेला चलना दिन रात है |
पर जब भी ऊपर देखा ,
पाया , इश्वर तू मेरे साथ है |

अब तक जितनी बिगड़ी ,
बनी मेरी बात है |
पूरी और पूरी तरह ,
इसमें तेरा हाथ है |

जितना कुछ पाया जीवन में ,
सब तेरी सौगात है |
कुछ खोने पर कोस देता हूँ तुझे ,
कितनी आपस की बात है !

तुच्छ हूँ बहुत मैं ,
मेरी क्या औकात है ?
जो भी हूँ ,इसलिए हूँ ,
क्यूंकि तू मेरे साथ है |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

बुधवार, 13 मई 2009

पी गटागट जाता हूँ |

दिन भर मगज मार कर ,
आख़िर जब थक जाता हूँ |
हाथ ले शब्दों के काढे को ,
पी गटागट जाता हूँ |

पीकर उसको , मुझको ,
मद्धम सा नशा होता है |
विवरण से परे है उसमें ,
सच , ऐसा मज़ा होता है |

दुनिया अलग दिखायी देती है ,
अनसुनी बातें सुनाई देतीं हैं |
मन आवारा हो , भागा फिरता ,
इच्छाएं अंगडाई लेती हैं |

लिख कर दो एक पंक्ति ,
यह नशा तुममे बाँट जाता हूँ |
ज्यूँ ही कम होता है यह ,
फ़िर पी गटागट जाता हूँ |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

मंगलवार, 12 मई 2009

कहाँ से लाऊं ?

इतने तूफ़ान भरे हैं दिल में \\
बयान करने के लिए ,
शब्द कहाँ से लाऊं ?

दर्द बढ़ता जा रहा हद से \\
उसे बाटने के लिए ,
हमदर्द कहाँ से लाऊं ?

ताप बढती जा रही धूप की \\
ठंडक पहुंचाए जो मन को वह ,
ऋतु शरद कहाँ से लाऊं ?

मेरे ऊपर बना रहे हमेशा ,
स्नेही , दयालु , शुभेछु वह ,
वरद हस्त कहाँ से लाऊं ?

अकेले ही चलता आया अभी तक \\
अब इस सूने बीहड़ में एक ,
और मुसाफिर कहाँ से लाऊं ?

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

नज़र आई है |

देख लिया बहुत , यूँही दूर दूर से ,
वह मंजिल पाने की , अब कसक उठ आई है \\

चलते चलते लगता , वह नज़र आई है ,
पथराई आंखों में एक चमक नज़र आई है \\

मुरझाये से चेहरे पर , थोडी सी दमक आई है ,
मुझसे तेज़ चलने लगी , अब मेरी परछाई है \\

क्या लोग थे वे , जो पहुंचे वहां तक ,
मेरी तो अभी से ही , साँस फूल आई है \\

इस पर ही सब्र करता हूँ की ,
राह चाहे जैसी भी है , ग़लत नही ,
आख़िर इसमे मंजिल नज़र आई है \\

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

शनिवार, 9 मई 2009

कौन हूँ मैं ?

कभी अकेले में , जो पूछा ख़ुद से |
इस सवाल पर मौन हूँ मैं |
आख़िर , कौन हूँ मैं ?

बाहर जो दिखता जग को ,
क्या वैसा ही भीतर हूँ मैं ?
इतनी बड़ी है यह दुनिया ,
और कितना गौण हूँ मैं ?

इस विशाल समुद्र में ,
क्या एक लहर हूँ मैं ?
गिरी हो प्रलय की गाज जिस पर ,
क्या उजड़ा वह शहर हूँ मैं ?

हवा से उड़ता रहा ,
क्या एक पतंग हूँ मैं ?
या जो जड़ा रहा ,
वह एक स्तम्भ हूँ मैं ?

अपनी ही नज़र में , कभी नायक ,
कभी खलनायक हूँ मैं |
कौन हूँ मैं आख़िर ,
क्या इसका उत्तर देने लायक हूँ मैं ?

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

वह समय आ गया है !

ज़ोर शोर से , जाने कब से, तैयारी करता रहा ?
छोटे छोटे ही सही , कदम उठा बढ़ता रहा

अब उस तैयारी का इम्तहान आ गया है
साबित कर के दिखा खुदको
वह समय आ गया है !

कितनी बार गिरा है तू , इसका कोई हिसाब नही
पर जिस हिम्मत से उठा है , उसका कोई जवाब नही

अपनी तस्वीर को तू कबसे , रोज़ मिटा - बना रहा है
लहू और पसीने से , हमेशा सना रहा है
उस लहू की गर्मी अब दिखेगी जग को ,
हाँ, वह समय आ गया है

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

शुक्रवार, 8 मई 2009

इच्छाएं कितनी ?

क्या पता इन सबकी ,
प्यास कभी मिटनी है ?
इनकी कोई गिनती नही ,
मानव इच्छाएं कितनी हैं ?

बचपन से ही मानव ,
इच्छा पर इच्छा पाले जाता |
छोटे से बर्तन में ,
और और डाले जाता |

अपनी इच्छाएं लेकर ,
रात रात जागता रहता |
मृग तृष्णाये बनाकर उनको ,
उनके पीछे भागता रहता |

उतनी फिर से पैदा हो जाती ,
पूरी करता जितनी है |
मर जाता मानव , यह रह जातीं ,
मानव इच्छाएं कितनी हैं ?

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

गुरुवार, 7 मई 2009

कितनी बार कहूँ ?

बस बहुत हुआ , अब और कितने दंश सहूँ ?
मांग चुका सौ बार फलक को |
अब और कितनी बार कहूँ ?

चला था छूने आसमान को ,
चलना शुरू नही कर पाया हूँ |
चाहता था सोना बनना , पर सांचे में ,
ढलना शुरू नही कर पाया हूँ |

अपने इस स्वप्न पर ,
और कितने निबंध लिखूँ ?
माना स्वर्णिम है वहां तक जाना , पर उस जगह पर ,
और कितने छंद लिखूँ ?

कमी मेरी कोशिश में ही है ,
दोष कब तक भाग्य पर मदुं ?
नतीजा वैसा ही होगा ,
जैसे इस लडाई को लडूं |

कुछ करना ही होगा मुझे ,
कब तक यूँ कमज़ोर रहूँ ?
खुद से वादा करना होगा ,
तुमसे कितनी बार कहूँ ?

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

बुधवार, 6 मई 2009

कख छ वु |

सुबेर साम ढूँढनु छ ,
कोणा कोणा देख्णु छ |
जु म्यार जिकुड़ी मा बस ग्यायी ,
कख छ व् छोरी , कख छ वु ?

सौ मुखडी देखिक ,
कुई नि पसंद ऐई |
जु देखि येकि मुखडी ,
जिकुड़ी धक् हुए ग्यायी |

अब सुदि बैठि ,
वैकु नां रटणु छ |
रात बिटिक सुबेर तलक ,
सुंदर सुपना आणु छ |

बिजां चतुर छोरी छ ,
दूर बीटी मुस्कांदी |
पास आन्दु जु मि कदी ,
टप जानी कख लुक जांदी |

यारों कुई छुई ,
हुई नि वैकि गैल |
चल गयुं जनुअरी ,
चल गयुं अप्रैल |

अब प्राण मेरा ,
तड़पणु बिना वैकु |
मिल जाई वु मितैं ,
कख व् छोरी , कख वु ?

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

मंगलवार, 5 मई 2009

पीछे मुड़कर देख तू

चला कहाँ से ?
कहाँ खड़ा है ?
दे विचार एक तू |
पीछे मुड़कर देख तू |

तेरे साथ कितने चले ,
लेकिन सब भागे नही |
तू भागा बहुत तेज़ ,
पर है सबसे आगे नही |

इतना आगे तू आया ,
क्या यह इतना आसान है ?
पीछे होकर तुझसे किसीने ,
क्या किया एहसान है ?

हमेशा तू हारा नही ,
कभी हुई तेरी जीत भी है |
उन्ही जीतों के लम्हों से ,
आज जुड़कर देख तू |

उतार फेंक यह उदासी ,
हैरान हो मत झेंप तू |
यह तेरा ही बीता कल है ,
ज़रा पीछे मुड़कर देख तू |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

आज दिन कुछ और है

आज मन व्याकुल बड़ा हो रहा |
भविष्य सोच कर परेशान बड़ा हो रहा |

सोचता है , अभी तक सिर्फ़ इतना ही ज़ोर लगा पाया हूँ |
की अपनी नाव नदी के छोर लगा पाया हूँ |

दूर मंजिल हो तो , राह नही आसान कभी |
लहरें होंगी बड़ी बड़ी , बिजली और तूफ़ान भी |

कल तक इन बातों से , भय नही लग रहा था |
आज लगता जो असम्भव , कल सम्भव लग रहा था |

पार करने की सोचता हूँ सागर को ,
अभी छोटे भंवर ही सह पाया हूँ |

कितना कमज़ोर महसूस कर रहा हूँ ,
कहाँ किसीसे कह पाया हूँ |

धीरे धीरे मेरा मनोबल रहा तोड़ है |
और दिनों जैसा नही , आज दिन कुछ और है |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

रविवार, 3 मई 2009

फुक्ग्युं यख दिल्ली मा

हला भैजी कन छ ?
बदली छाई होली वख टीरी मा |
यखी त बस आग छ , फुन्कग्युं यख दिल्ली मा |

तनखा बिजां कम हुएगी , रेणा छन तंगी मा |
कोड मा खाज हुएगी , ऐ छोरा , एन मंदी मा |

कोई अपणु नि छ यख , सब मतलब का दगडी छन |
खूब खाई मिन धोखा , पर भैजी अब क्या कन ?

यख सुबेर सात बजेक बीटी , घनी घाम लग जांदी |
यख वख बाटा मा , सुंगर जाम लग जांदी |

जखी देखा , वखी सरा- सरी मच्युन छ |
पैसा का वास्ता , मारा मारी मच्युन छ |

यु माहौल मीतें , रास नि आणु छ |
फंड फुकी येतें , मी घौर आणु छ |

घौर एके , दाल भात खेके , रौला तस्सली मा |
कंदुडी पकड़दों , फुक्ग्युं यख दिल्ली मा |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

प्रेम , तुम थम जाओ

अभी बहुत व्यस्त हूँ , मेरे रस्ते में मत आओ |
सुनो प्रेम , तुम थम जाओ |

तुम में बह जाना , भला तो है , तुम्हारा न होना , खला तो है |
पर अभी सही समय नही , बहुत कुछ जीवन में करने को , बचा तो है |

कर लूँ पूरी अभिलाषा अपनी ,फिर तुम्हारी सुनूंगा |
तुम्हारे बाग़ से एक फूल , भी तभी चुनुँगा |

एक स्थिति के बाद ही , यह सब अच्छा लगता है |
वरना लगता , है तो पकवान , पर रह गया कच्चा है |

इसीलिए चाहता हूँ , मेरे विचारों में जरा कम आओ |
सुनो प्रेम , तुम थम जाओ |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

शुक्रवार, 1 मई 2009

किस काम की

सुबह से ही , प्रतीक्षा होती , एक सिन्दूरी शाम की |
फीकी सी ही बीत जाए , वह शाम किस काम की |

नशा होता जिसमें गहरा , वाह - वाह होती उस जाम की|
जो चढा सुरूर उतारे , वह सुरा किस काम की |

जहाँ देवता न बसते , कौन सुध लेता उस धाम की |
जिससे दर्द कम न होता , वो दवा किस काम की |

जिसे कोई न पहचाने , क्या बात हो उस नाम की |
जिससे कुछ खरीद न पाये , वो मुद्रा किस काम की |

रंग हो जिसमें भरा , वो स्मृति किस काम की |
मन पुलकित हो जिसे पढ़कर , ऐसी कृति किस काम की |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"