फिर रात का साया है,
आँखों पर कालिख लगाने आया है|
नए, काले स्लेट पर दौड़ेगा ख्वाब,
अपनी स्याही दवात ले,
यहाँ तस्वीरें बनाने आया है|
ज़ेहन की कूची है, अरमानों के रंग,
खूब रहती रौनक यहाँ, इन सब के संग|
रोज़ रात महफ़िल ज़मती है,
रोके से ये कहाँ थमती है|
सुबह आती है, वही महफ़िल से उठाती है,
रात की कालिख, आँखों से पूँछ जाती है|
- अक्षत डबराल
आँखों पर कालिख लगाने आया है|
नए, काले स्लेट पर दौड़ेगा ख्वाब,
अपनी स्याही दवात ले,
यहाँ तस्वीरें बनाने आया है|
ज़ेहन की कूची है, अरमानों के रंग,
खूब रहती रौनक यहाँ, इन सब के संग|
रोज़ रात महफ़िल ज़मती है,
रोके से ये कहाँ थमती है|
सुबह आती है, वही महफ़िल से उठाती है,
रात की कालिख, आँखों से पूँछ जाती है|
- अक्षत डबराल
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें