खूंटी से टंगा , वह पुराना कपड़ा ,
फिर यादें ताज़ा कर गया |
पल पल ढलती उम्र को ,
यूँ मानो आधा कर गया |
उस बेचारे का भी एक दौर था ,
वो वक़्त भी कुछ और था |
क्या मस्ती भरे थे दिन ,
जीवन ख़ुशी का शोर था |
उजला उजला दिखता था सब कुछ ,
अपना सा लगता था सब कुछ |
जों भी देखा हो सपने में ,
बस हो जाएगा सच मुच |
पर अब इस कपड़े की तरह ,
वो दिन भी पुराने पड़ गए |
जैसे टंगा है यह खूंटी पर ,
वैसे ही कोने में जड़ गए |
यूँ दिखा कर के खुदको ,
मन अनमना सा कर गया |
ले जा रहा था फिर उस वक़्त में ,
पर मैं मना सा कर गया |
वो तो ले जाएगा , मैं चला भी जाऊँगा |
बाद की याद से डरता हूँ |
ओ दोस्त तू चला जा ,
मैं न आ पाऊंगा |
मैं न आ पाऊंगा |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
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