शुक्रवार, 30 जुलाई 2010

माफ़ करना ...

मेरी तरफ आती झूठी मुस्कानों को ,
जला देने का दिल करता है।
क्या मालूम कभी जला भी दूँ ?
होंठ जलें तो माफ़ करना।

मुझसे हर बात में साथ ,
की उम्मीद मत रखना |
क्या मालूम मैं कभी ना दूँ ?
चोट लगे तो माफ़ करना |

मैं हर वक़्त सच्चा ,
तुम्हारे लिए अच्छा नहीं हो सकता |
क्या मालूम कभी बदल जाऊं ?
धोखा लगे तो माफ़ करना |

मैं हमेशा तुम से खुश रहूँ ,
मीठा बोलूं , या चुप रहूँ |
क्या मालूम क्या उगल जाऊं ?
तेज़ लगे तो माफ़ करना |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

मंगलवार, 27 जुलाई 2010

मिन सुद्दी नि मारी छुट्टी

अपने आज के टूटे हुए (इश्वर की कृपा से) केवल मोच खाए पैर पर एक गढ़वाली कविता का प्रयास ,


हे मेनेजर बोडाजी ,
हला टीम लीड भैजी |
मिन सुद्दी नि मारी छुट्टी ,
बल मेरु खुट्टा छ टुटी |

आजौं हस्पताल गयी थौ ,
वखी एक्स रा करयाई |
उ मर्जाणु मा कछु नि आई ,
पर आप मेरा दगड़ा न करा कुट्टी ,
मिन सुद्दी नि मारी छुट्टी |

मी जानदौं काम बीजाण छ ,
पर सबसा पहली अपना प्राण छ |
यूँ न हुई कदी मेरा गैल ,
काम का वास्ता , गुम हुई लटटी पट्टी ,
मिन सुद्दी नि मारी छुट्टी |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

शनिवार, 24 जुलाई 2010

मैंने,खुश रहना सीख लिया है |

रो-रो न थकता है जग ,
चीखते, चिल्लाते हैं सब |
ऐसी सभा में मैंने ,
चुप रहना सीख लिया है |
मैंने, खुश रहना सीख लिया है |

जब सब ही यहाँ विद्वान हैं ,
छलक छलक आता ज्ञान है |
इन सब पंडों के बीच मैंने ,
मूर्ख रहना सीख लिया है |
मैंने, खुश रहना सीख लिया है |

मुद्रा के पीछे भाग रहे सब ,
निन्यानवे के फेर में जाग रहे सब |
इस मृग तृष्णा से परे मैंने ,
संतुष्ट रहना सीख लिया है |
मैंने, खुश रहना सीख लिया है |

आगे बढ़ने की होड़ हो ,
या पीछे होने की चिल्ल पौं |
इन सबसे ऊपर उठ मैंने ,
शांत चित्त रहना सीख लिया है |
मैंने, खुश रहना सीख लिया है |

आज लाभ है , कल हानि है ,
धूप- छाँव , आनी- जानी है |
एक समान भाव से मैंने ,
सुख - दुःख सहना सीख लिया है |
मैंने, खुश रहना सीख लिया है |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

बुधवार, 21 जुलाई 2010

जीवन सैशे में !

अधिकाधिक भारतीयों के अनुरूप अपनी दिनचर्या का भी, " सैशे " एक अभिन्न अंग है ,
उसको ही लेकर, थोड़ा सा उसकी प्रसिद्धी का, अनुचित उपयोग कर रहा हूँ ...

कठोर, निठुर ये जग है ,
विषाक्त, विषैले जन सब हैं |
कैसे मिले उन्मुक्त जीवन ऐसे में ,
ले लीजे , जी लीजे , जीवन "सैशे" में|

कर लगता है श्वांस पर ,
घोड़ा मैत्री रखता घास पर |
कितना भी व्यय करिए पैसे में ,
मिलेगा यही ,जीवन "सैशे" में |

सप्ताह , माह , जीवन पर्यंत ,
इसके श्रृंगार का युद्ध, द्वंद्व |
करते जों बन पड़ता जैसे में ,
पर फल इतना सा ? जीवन "सैशे" में|

व्यतीत करिए हंस कर या रोकर ,
होनी तो रहेगी ही हो कर |
कब आयें यमराज विचित्र वेशे में ,
निचोड़ डाले बचा खुचा, जीवन "सैशे" में |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

शुक्रवार, 16 जुलाई 2010

मैं हूँ आज का मानव , मैं अँधा हूँ |

मेरा घर , मेरा परिवार , मैं ,
ये कुशल हैं , तो मैं चंगा हूँ |
मेरी यही सोच है ,
मैं हूँ आज का मानव , मैं अँधा हूँ |

पहले कुटुंब होते थे ,
संबंध लम्ब , अति लम्ब होते थे |
किन्तु सब धूमिल इतिहास है ,
कूपमंडूक बन , कुँए के रंग में रंगा हूँ |
मैं हूँ आज का मानव , मैं अँधा हूँ |

कभी मुझे प्रभु का भय था ,
अब प्रभु को मुझसे भय है |
पाप कर सब सिद्धियाँ पाकर ,
मैं विष्णु, मैं महेश, मैं ही ब्रह्मा हूँ |
मैं हूँ आज का मानव , मैं अँधा हूँ |

किन्तु न्याय का वार अकाट्य है ,
भान है मुझे , मेरे जों ये नाट्य हैं ,
इनका प्रतिफल अवश्य मिलेगा |
भर गया है घड़ा, तब भी धुन में रमा हूँ ,
मैं हूँ आज का मानव , मैं अँधा हूँ |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

मंगलवार, 13 जुलाई 2010

ये दुनिया एक पागलखाना !

अँधा सा युग है ,
नंगा सा ज़माना ,
बेगानी शादी है ,
अब्दुल्ला दीवाना ,
ये दुनिया एक पागलखाना !

कहीं अजीब कपड़ो की सनक ,
बदनामी से नाम की ललक |
बात करने का सज नहीं ,
बने हैं सबसे बड़े सयाना |
ये दुनिया एक पागलखाना !

रोज़ यहाँ नयी नौटंकी ,
उलटी, सीधी , ढंग बेढंगी |
कोई कहीं बयान दे देता ,
कहीं दाखिल होता हलफनामा ,
ये दुनिया एक पागलखाना !

हर कोई अपने आप को अज़ीम है ,
दवा नहीं मालूम पर सब हकीम हैं |
मर्ज़ एक है , अब क्या छुपाना ,
क्या अपना और क्या बेगाना ?
ये दुनिया एक पागलखाना !


इतने पे भी तो बात न रूकती ,
ये दुनिया हँसाने से न चुकती |
मियाँ जिंदा हैं चाक चौबंद ,
किसी ने कर दिया पंचनामा ,
ये दुनिया एक पागलखाना !

अक्षत डबराल
"निःशब्द"