गुरुवार, 30 जुलाई 2009

यूँ ही खवा माँ खा हम शायर न हुए |
हमे भी एक शमा की तलाश है |

ग़ज़ल , शायरी तो कर ही लेते हैं |
बस एक नाज़रीन की आस है |

ढूंढ ही लेगा तुझे ये परवाना ऐ शमा |
याद रखियेगा , ये परवाना भी कुछ ख़ास है |

शनिवार, 25 जुलाई 2009

ये ऋतु न व्यर्थ बेकार की

ये ऋतु न साज सिंगार की ,
ये ऋतु न तीज त्यौहार की |
ये ऋतु न इश्क प्यार की ,
ये ऋतु न व्यर्थ बेकार की |

जागो , उठो , रणभूमि पुकारती ,
ये ऋतु है प्रहार की |
रिपुओं के दमन की ,
पाप के संहार की |

पिया न हो लहू जिसने ,
हो शस्त्र - भाल किस काम की |
मर न मिटी हो अपने जूनून पे ,
वो जवानी बस नाम की |

उठा मस्तक , चला चल तू ,
बात कर कुछ शान की |
अभी घिस ले , पिस ले ,
कल न ये ऋतु होगी , न जवानी |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

शुक्रवार, 17 जुलाई 2009

पिछली बारिश

एक अरसा हो गया , पानी पड़ा था इस ज़मीन पे |
बादल घिर घिर के आया था |

बिजली लपकी थी यहाँ से वहाँ |
हवा ने जी भर के उधम मचाया था |

गीली मिट्टी की खुशबू अन्दर तक सहला गई थी |
खिल उठी थी वो कलियाँ जो पहले कुम्हला गई थीं |

ठंडी ओस सी लगती बूदें , जब पड़ती थी आंखों में |
जान फूंक दी हो जैसे , मन के सूखे धानों में |

भीग भीग कर उस बारिश में , थकन सारी छुड़ा ली |
बच्चा बनकर कितनी कश्ती तैरायीं , डुबा दीं |

वो पिछली बारिश का दिन , आज भी याद आता है |
मेरी प्यास को और बढ़ा जाता है |

आ मेघा, आज बरस जा पूरे ज़ोर से |
आज तुझे बिना बरसे , एक अरसा हो जाता है |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

बुधवार, 15 जुलाई 2009

कुछ तो बात है तेरे नाम में ,
कि तुझपर मरकर,
हम मशहूर हो गए |

सिर्फ तेरे पास हैं ,
इस मरदूद ज़माने से दूर हो गए |

बस तुझपर ही आकर ,
दिल रुक गया हमारा |

वरना अबतक कितने नज़राने ,
आये और चले गए |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

मंगलवार, 14 जुलाई 2009

ज़िन्दगी

सचमुच कितना गूढ़ सवाल है ज़िन्दगी |
कहीं शान्ति तो कहीं बवाल है ज़िन्दगी |

सड़क किनारे झुग्गी में, बेबस, लाचार है ज़िन्दगी |
कहीं शानो शौकत भरी,चाँद लगे चार है ज़िन्दगी |

कहीं बेचैनी, चिंता भरी, नींद की गोली है ज़िन्दगी |
कहीं फुटपाथ पे मस्त, निश्चिंत, भोली है ज़िन्दगी |

जवान खून का जोश लिए, कहीं रफ्तार है ज़िन्दगी |
कहीं ढलती शाम सी, झुर्रियों का हार है ज़िन्दगी |

दीन दुनिया से परे ,कहीं सन्यास है ज़िन्दगी |
कहीं मादक, रसिक, कोई उपन्यास है ज़िन्दगी |

कोने में ढका, सहेजा हुआ,पुराना समान है ज़िन्दगी |
कहीं रोज़ आकाश की, इक नई उड़ान है ज़िन्दगी |

कहीं हर घर में जाना हुआ , मशहूर नाम है ज़िन्दगी |
मगर कहीं बेनामी के अंधेरों में, गुमनाम है ज़िन्दगी |

बुधवार, 1 जुलाई 2009

ओ बेखबर |

ओ बेखबर , ओ बेखबर ,
दे अदा की एक नज़र |
तेरे लिए कितनी कशिश है ,
कभी तो ले ख़बर |

मन प्यासा प्यासा कबसे ,
रेगिस्ताँ सा तरस रहा |
और तू चाँद - बादल सा ,
न दिख रहा , न बरस रहा |

आ जा कभी इस ओर ,
न तारे बिछा दूँ तो कहना |
आ मिल जा मुझसे ,
न बहारें मोड़ दूँ तो कहना |

सच जहाँ मेरा ,
उस दिन सज जाएगा |
तू बेखबर , मेरी वफ़ा ,
जिस दिन समझ जाएगा |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"