ये ऋतु न साज सिंगार की ,
ये ऋतु न तीज त्यौहार की |
ये ऋतु न इश्क प्यार की ,
ये ऋतु न व्यर्थ बेकार की |
जागो , उठो , रणभूमि पुकारती ,
ये ऋतु है प्रहार की |
रिपुओं के दमन की ,
पाप के संहार की |
पिया न हो लहू जिसने ,
हो शस्त्र - भाल किस काम की |
मर न मिटी हो अपने जूनून पे ,
वो जवानी बस नाम की |
उठा मस्तक , चला चल तू ,
बात कर कुछ शान की |
अभी घिस ले , पिस ले ,
कल न ये ऋतु होगी , न जवानी |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
हिंसा की ऋतु अब भी आती है मानव जाति का दुर्भाग्य है।
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