एक अरसा हो गया , पानी पड़ा था इस ज़मीन पे |
बादल घिर घिर के आया था |
बिजली लपकी थी यहाँ से वहाँ |
हवा ने जी भर के उधम मचाया था |
गीली मिट्टी की खुशबू अन्दर तक सहला गई थी |
खिल उठी थी वो कलियाँ जो पहले कुम्हला गई थीं |
ठंडी ओस सी लगती बूदें , जब पड़ती थी आंखों में |
जान फूंक दी हो जैसे , मन के सूखे धानों में |
भीग भीग कर उस बारिश में , थकन सारी छुड़ा ली |
बच्चा बनकर कितनी कश्ती तैरायीं , डुबा दीं |
वो पिछली बारिश का दिन , आज भी याद आता है |
मेरी प्यास को और बढ़ा जाता है |
आ मेघा, आज बरस जा पूरे ज़ोर से |
आज तुझे बिना बरसे , एक अरसा हो जाता है |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
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