सोमवार, 31 अगस्त 2009

गुज़र चुका हो दौर जिसका ,
ठहरा हुआ वो वक़्त हूँ मैं |
दुनिया के नाम लिखा ,
एक गुमनाम ख़त हूँ मैं |

धुंधले पड़ रहे हैं शब्द ,
मतलब खो रहे हैं शब्द |
कोई क्यूँ मुझे उठा पढ़े ,
एक अनजान दस्तखत हूँ मैं |

एक ज़माना गुज़रा इन आँखों के आगे ,
पर कौन मेरी अब उम्र गिने |
सैकडों घेरे लिए खड़ा,
एक बूढा दरख्त हूँ मैं |

रखे रखे पीला पड़ा ,
पुराने अखबार कि कतरन सा |
पर कौन मेरी तारीख पढ़े ,
धूल, धुँए से लथ पथ हूँ मैं |

एक ज़माने से जों ,
बिस्तर पर है बिछी |
उस पुरानी चादर की,
एक गहरी सलवट हूँ मैं |

खफा हो कर जों मुझसे ,
मेरी तरफ पीठ कर बैठा |
माना नहीं ऐसा अड़ा ,
खाली नसीब का करवट हूँ मैं |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

बुधवार, 26 अगस्त 2009

दो लफ्ज़ लिखे हैं कागज़ पर ,
वो लफ्ज़ समझ नही पा रहा
ज़बान जानता हूँ वो मैं ,
पर मतलब जान नही पा रहा

अक्सर ज़िन्दगी करती है ऐसा ,
कोरे कागज़ पर लिख देती दो लफ्ज़
आड़ी तिरछी लकीरों जैसा
ढूंढ पाता जवाब इंसां
थमा जाती एक सवाल ऐसा

कशमकश में मालूम न पड़ा ,
वजूद का चिराग बुझता जा रहा
वक्त बन रेत हाथों से ,
सर सर फिसलता जा रहा

ऐसा नहीं की इसे बूझने की ,
कोशिश नहीं कर पाया
पर जहाँ से चला था ख़ुद को ,
वापस वहीँ खड़ा पाया

मैं हारा ,
यह सवाल वाकई खूब रहा
कहने को तो , बस दो लफ्ज़ लिखे हैं कागज़ पर ,
बस वो लफ्ज़ नही समझ पा रहा

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

मंगलवार, 25 अगस्त 2009

दो लफ्ज़ लिखे हैं कागज़ पर ,
वो लफ्ज़ समझ नही पा रहा
ज़बान जानता हूँ वो मैं ,
पर मतलब जान नही पा रहा

अक्सर ज़िन्दगी करती है ऐसा ,
कोरे कागज़ पर लिख देती दो लफ्ज़
आड़ी तिरछी लकीरों जैसा
ढूंढ न पाता जवाब इंसां
थमा जाती एक सवाल ऐसा

कशमकश में मालूम न पड़ा ,
वजूद का चिराग बुझता जा रहा
वक्त बन रेत हाथों से ,
सर सर फिसलता जा रहा

ऐसा नहीं की इसे बूझने की ,
कोशिश नहीं कर पाया
पर जहाँ से चला था ख़ुद को ,
वापस वहीँ खड़ा पाया

मैं हारा ,
यह सवाल वाकई खूब रहा
कहने को तो , बस दो लफ्ज़ लिखे हैं कागज़ पर ,
बस वो लफ्ज़ नही समझ पा रहा

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

बुधवार, 19 अगस्त 2009

हम तुम, एक तितली का जोड़ा |

तुम हम , हम तुम,
एक तितली का जोड़ा |
कभी थोड़ी तकरार ,
कभी प्यार थोड़ा थोड़ा |

छोटी सी ज़िन्दगी ,
छोटा ही जहाँ हमारा |
रस पीना , मस्त जीना ,
बस यही काम हमारा |

हमारे संग को ,
जो कभी नज़र लग जाए |
हम तुम जो कभी ,
अलग हो जाएँ |

यादों की गजलें ,
जो साथ साथ लिखी थीं |
उनको न कर देना कोरा |


कोई पाक किताब बनाकर उनको ,
सुनहरी जिल्त देना ओढा |
कोई पढ़ेगा , याद करेगा |
कभी था , एक तितली का जोड़ा |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

गुरुवार, 13 अगस्त 2009

मैं तो ठहरा ही हूँ

मैं तो ठहरा ही हूँ , तुम ही कभी नही आए
तुम्हें कितने ख़त लिखे , मिटाए
मैं शायद समझा न पाया ,
और तुम समझ न पाये

आज की नहीं , यह बात पुरानी है
आंखों से कितनी बार कही ,
पर तुम सुन ही नहीं पाये

बहुत बार जताया ख़ुद को
मैं तो आस पास ही था ,
पर तुम ही देख नहीं पाये

मेरा तुम्हारा साथ हो ,
काश कभी वो दिन आए
पर आज तक ,
मैं तो ठहरा ही हूँ , तुम ही कभी नहीं आए

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

गुरुवार, 6 अगस्त 2009

स्वीकार है , स्वीकार है |

ये जो मिली है तुझे आज ,
ये कोई हार है |
तेरे बल का माप है ,
फिर युद्घ कि ललकार है |

शूर है तू , वीर है तू ,
कर सिंहनाद ,
स्वीकार है , स्वीकार है |

एक बार गिरने से तू ,
हारा नहीं हो जाता |
हारा वो है जिससे गिरकर,
दुबारा उठा नहीं जाता |

मत हार हिम्मत ,
ये तो पहली बार है |
चींटी भी तब चढ़ पाती ,
जब गिरी सौ बार है |

पहचान इसे , ये युद्घ की ललकार है |
शूर है तू , वीर है तू ,
कर सिंहनाद ,
स्वीकार है , स्वीकार है |

अक्षत डबराल
निःशब्द