बुधवार, 26 अगस्त 2009

दो लफ्ज़ लिखे हैं कागज़ पर ,
वो लफ्ज़ समझ नही पा रहा
ज़बान जानता हूँ वो मैं ,
पर मतलब जान नही पा रहा

अक्सर ज़िन्दगी करती है ऐसा ,
कोरे कागज़ पर लिख देती दो लफ्ज़
आड़ी तिरछी लकीरों जैसा
ढूंढ पाता जवाब इंसां
थमा जाती एक सवाल ऐसा

कशमकश में मालूम न पड़ा ,
वजूद का चिराग बुझता जा रहा
वक्त बन रेत हाथों से ,
सर सर फिसलता जा रहा

ऐसा नहीं की इसे बूझने की ,
कोशिश नहीं कर पाया
पर जहाँ से चला था ख़ुद को ,
वापस वहीँ खड़ा पाया

मैं हारा ,
यह सवाल वाकई खूब रहा
कहने को तो , बस दो लफ्ज़ लिखे हैं कागज़ पर ,
बस वो लफ्ज़ नही समझ पा रहा

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

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