शनिवार, 17 दिसंबर 2011

खानाबदोश

मेरे खानाबदोश होने में कोई दोष नहीं ,
 मुझे ज़िन्दगी का नशा है ,
ज़माने का कोई होश नहीं |
यही है मेरे जीने का अंदाज़ ,
और इसका मुझे कोई अफ़सोस नहीं |

कब बैठा हूँ मैं थककर ,
कब चला हूँ मैं रूककर |
रुकना मेरी फितरत नहीं ,
झुकना मेरी फितरत नहीं |
जो है , जैसा है , वही सही ,
नहीं है, वो मेरी किस्मत नहीं |

कितना खुद को कोसोगे ,
कितनी देगो रब को गाली ?
जब खुद लिख सकते हो नसीब को ,
क्यों भरोसे रखते हो खाली ?
दम भर कर क्यों नहीं कहते ,
ज़िन्दगी जियेंगे शेरों वाली |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"