सोमवार, 30 मई 2011

फिर मुझे एक सुबह देखनी है |

मैं सुबहों को बहुत चाहता हूँ ,
नया जीवन होता है उनमें |
सूरज को चढ़ने कि ज़ल्दी ,
चिड़ियों को उड़ने कि ज़ल्दी |
बाहर पड़ी ओस को घुलने कि ,
फूलों को खुलने कि ज़ल्दी |

पेड़ कुछ अलसाए से रहते हैं ,
ताने सुस्त से , पत्ते हकबकाए से रहते हैं |
और घास जैसे पुरानी सहेली हो ,
ऐसे खुश होती जैसे मैं उत्तर , और वो पहेली हो |

कुछ बेलें छूट जाती हैं कैद से ,
रंगीन हो जाती सफ़ेद से |
कभी हाथ बड़ा रोकना चाहतीं ,
कभी सिकुड़ जाती दूर से ही देख के |

घरों कि छतें कैसे चिढती हैं,
धूप से दिनभर पीठ सेकनी हैं |
अब सोता हूँ , कल उठना है ,
फिर मुझे एक सुबह देखनी है |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

सोमवार, 23 मई 2011

सवाल ...

कभी हवा में उड़ते ,
कभी हवा से लड़ते , सवाल |
कभी माथे से फिसलते ,
पसीने से पिघलते , सवाल |

कभी दीवार से सटे ,
कभी जमीन में पटे , सवाल |
कभी माथे में चुभते ,
जिगर में दुखते , सवाल |

कभी बौहों को उठाते ,
पलकों को उलझाते , सवाल |
कभी झंझोड़ते ,
मन को झुंझलाते सवाल |

कभी हलकी सी सिसकी ,
कभी तूफ़ान , सवाल |
कभी रज़ा का अमन चैन ,
कभी जिहाद का बवाल , सवाल |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

शनिवार, 14 मई 2011

क्या पाया , क्या खोया ?

ज़िन्दगी टिक टिक घड़ी सी चलती ,
क्या जागा , क्या सोया ?
एक एक कर दिन ख़त्म हो रहे ,
क्या पाया , क्या खोया ?

याद करने को है बहुत कुछ ,
क्या हंसा , क्या रोया ?
तोला कभी ये क्या तूने
क्या पाया , क्या खोया ?

अपने ही है कल तेरा ,
क्या काटा , क्या बोया ?
कहाँ हैं तेरे बही खाते ,
क्या पाया , क्या खोया ?

कुछ होंगे क़र्ज़ तर्ज़ पर ,
क्या चुका , क्या ढोया ?
आ करले हिसाब ज़िन्दगी से ,
क्या पाया , क्या खोया ?

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

बुधवार, 11 मई 2011

फकीरों कि लटों से उलझे हैं ख्याल ,
कभी मन की उँगलियों से सुलझा लेता हूँ |
निगाहें फिर उलझा देती है इन्हें ,
थोड़ा रूककर इनपर झुंझला लेता हूँ |

मेरे चुप रहने की ये भी एक वजह है ,
बाकी तो दुनिया से छुपा लेता हूँ |
कुछ रह ही जाते हैं लम्हे उधार ,
कुछ किसी तरह मैं चुका लेता हूँ |

अक्सर मन भागा करता है बेलगाम ,
बहुत मुश्किल से इसे रुका लेता हूँ |
करता है अपनी मनमानी बेहद ,
पर किसी तरह इसे झुका लेता हूँ |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

मंगलवार, 10 मई 2011

तुम आओगे

क्या होगा दिन , तुम आओगे
क्या होगी रात , तुम आओगे
क्या होगी बात , तुम आओगे
क्या होंगे ज़ज्बात , तुम आओगे

क्या पजेब , क्या पाँव , तुम आओगे
क्या ज़ुल्फ़, क्या छाँव , तुम आओगे
क्या चांद का साथ , तुम आओगे
क्या बरसात कि रात , तुम आओगे

क्या सिंदूर कि लकीर , तुम आओगे
क्या नैनो के तीर , तुम आओगे
क्या लफ़्ज़ों कि खीर , तुम आओगे
क्या धड़कन कि ज़ंजीर , तुम आओगे

यूँही कहता रहूँगा , तुम आओगे
यूँही चाहता रहूँगा , तुम आओगे
कब तक देखूं , तुम आओगे
मैं तो यहीं हूँ क्या , तुम आओगे ?

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

सोमवार, 9 मई 2011

कुछ ख्वाब देखे थे मैंने

कुछ ख्वाब देखे थे मैंने ,
उसमें हम तुम संग थे |
पर वो तो बस ख्वाब ही थे ,
इन्द्रधनुष थे , पर बेरंग थे |

अन्दर से जाने कैसे हों ,
बाहर खाए जंक थे |
कुछ दीखते ठीक ठाक ,
कुछ बेहद बेढंग थे |

पर ये ख्वाब ही तो दौलत हैं ,
इनके बिना सब रंक थे |
कुछ ख्वाब देखे थे मैंने ,
उसमें हम तुम संग थे |

अक्षत डबराल
"निःशब्द "

रविवार, 8 मई 2011

मैं खुद से ही भाग रहा था ...

रात रात भर , जिस चीज़ को लेकर ,
मैं जाग रहा था |
कुछ नहीं , मेरा ही साया था ,
मैं खुदसे ही भाग रहा था |

कितनी दूर , कितनी आगे जाना था ,
क्यूँ मैं बगलें झाँक रहा था ?
मेरा ही फ़र्ज़ था , मुझे ही करना था ,
और मैं खुदसे ही भाग रहा था |

खुद से किया था जों वादा ,
कहाँ मुझे अब याद रहा था ?
अपने आप से अनजान बन ,
मैं खुदसे ही भाग रहा था |

कभी आइना देखा , याद आया ,
मेरा चेहरा ऐसा नहीं था , जैसा आज दिख रहा था |
होना ही था ऐसा तो जब ,
मैं खुद से ही भाग रहा था |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

मंगलवार, 3 मई 2011

और कुछ ...

दुनिया में , कुछ लोग बस जीने को जीते हैं ,
और कुछ, सच में जी जाते हैं |

कुछ मानते हैं ज़िन्दगी को कड़वा घूँट ,
और कुछ, खुश हो पी जाते हैं |

कुछ के लिए गिलास आधा खाली है ,
और कुछ, उसे आधा भरा पाते हैं |

कुछ के लिए ये है बस एक बोझ ,
और कुछ, इसका जश्न मनाते हैं |

कुछ मानते हैं इसे बंद संदूक ,
और कुछ, खुली किताब बनाते हैं |

कहने को तो सब जीते हैं ,
और कुछ, सही में जी जाते हैं |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

सोमवार, 2 मई 2011

बस ख्वाब देखता है आदमी |

आदत से मजबूर है ,
बस ख्वाब देखता है आदमी |
चाहे उसे जों दूर है ,
बस ख्वाब देखता है आदमी |

सच्चाई से आँख चुराता ,
बस ख्वाब देखता है आदमी |
जों कभी हो न पाता ,
बस ख्वाब देखता है आदमी |

चार दिन कि ज़िन्दगी है ,
बस ख्वाब देखता है आदमी |
कभी हंसती कभी रोती है ,
बस ख्वाब देखता है आदमी |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"