बुधवार, 23 दिसंबर 2009

खाली कुर्सियां

हंस हंस अपना फ़र्ज़,
अदा करती हैं खाली कुर्सियां |
कितनों कितनों को मिलाकर ,
जुदा करती हैं खाली कुर्सियां |

कभी ख़ुशी के आसूं लिए मिलाती हैं ,
कभी भावुक हो ,
विदा करती हैं खाली कुर्सियां |
भरी हो तो इतरा जाती ,
खाली हो तो ,
खुशाम्दीन करती हैं खाली कुर्सियां |

सच कितना सुख दुःख ,
बाँट जाती हैं खाली कुर्सियां |
यूँ सहते अपना वक़्त ,
काट जाती हैं खाली कुर्सियां |

जब तक चलती , ज़रा न खलती ,
आँगन में खाली कुर्सियां |
जहाँ टूटी , वहां चुभती ,
आँखों में खाली कुर्सियां |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

सोमवार, 7 दिसंबर 2009

क्योंकि वह गरीब आदमी है ...

हाँ , उसका दबना लाज़मी है ,
क्योंकि वह गरीब आदमी है |
उसका बचपन ही बुढापा है ,
उसकी न कोई जवानी है ,
क्योंकि वह गरीब आदमी है |

बेबस, लाचार ज़िन्दगी ,
छलनी तार तार ज़िन्दगी |
जीना तो मुश्किल है ,
मरने में आसानी है ,
क्योंकि वह गरीब आदमी है |

कितने कितने खवाब सजाता ,
कितनी उम्मीद लगाता |
पर उसकी गुहार कब सुनी जानी है ?
सूनी सी आँखें उसकी , खाली ही रह जानी है |
क्योंकि वह गरीब आदमी है |

दुनिया बहुत आगे बढ़ गयी ,
उसकी कहानी वही पुरानी है |
चाह कर भी कुछ नहीं कर सकता ,
क्योंकि वह गरीब आदमी है ,
क्योंकि वह गरीब आदमी है |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"