हंस हंस अपना फ़र्ज़,
अदा करती हैं खाली कुर्सियां |
कितनों कितनों को मिलाकर ,
जुदा करती हैं खाली कुर्सियां |
कभी ख़ुशी के आसूं लिए मिलाती हैं ,
कभी भावुक हो ,
विदा करती हैं खाली कुर्सियां |
भरी हो तो इतरा जाती ,
खाली हो तो ,
खुशाम्दीन करती हैं खाली कुर्सियां |
सच कितना सुख दुःख ,
बाँट जाती हैं खाली कुर्सियां |
यूँ सहते अपना वक़्त ,
काट जाती हैं खाली कुर्सियां |
जब तक चलती , ज़रा न खलती ,
आँगन में खाली कुर्सियां |
जहाँ टूटी , वहां चुभती ,
आँखों में खाली कुर्सियां |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
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