सोमवार, 31 अगस्त 2009

गुज़र चुका हो दौर जिसका ,
ठहरा हुआ वो वक़्त हूँ मैं |
दुनिया के नाम लिखा ,
एक गुमनाम ख़त हूँ मैं |

धुंधले पड़ रहे हैं शब्द ,
मतलब खो रहे हैं शब्द |
कोई क्यूँ मुझे उठा पढ़े ,
एक अनजान दस्तखत हूँ मैं |

एक ज़माना गुज़रा इन आँखों के आगे ,
पर कौन मेरी अब उम्र गिने |
सैकडों घेरे लिए खड़ा,
एक बूढा दरख्त हूँ मैं |

रखे रखे पीला पड़ा ,
पुराने अखबार कि कतरन सा |
पर कौन मेरी तारीख पढ़े ,
धूल, धुँए से लथ पथ हूँ मैं |

एक ज़माने से जों ,
बिस्तर पर है बिछी |
उस पुरानी चादर की,
एक गहरी सलवट हूँ मैं |

खफा हो कर जों मुझसे ,
मेरी तरफ पीठ कर बैठा |
माना नहीं ऐसा अड़ा ,
खाली नसीब का करवट हूँ मैं |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

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