मैं तो ठहरा ही हूँ , तुम ही कभी नही आए
तुम्हें कितने ख़त लिखे , मिटाए
मैं शायद समझा न पाया ,
और तुम समझ न पाये
आज की नहीं , यह बात पुरानी है
आंखों से कितनी बार कही ,
पर तुम सुन ही नहीं पाये
बहुत बार जताया ख़ुद को
मैं तो आस पास ही था ,
पर तुम ही देख नहीं पाये
मेरा तुम्हारा साथ हो ,
काश कभी वो दिन आए
पर आज तक ,
मैं तो ठहरा ही हूँ , तुम ही कभी नहीं आए
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
भुला डबराल, सच में , कविता के भाव बहुत अच्छे ढूंढ लाते हो, बुरा न मानो तो उन्हें पिरोने में थोड़ी जल्दवाजी कर जाते हो, कोशिश जारी रखो, लिखते बहुत सुन्दर हो और मुझे पूरा विस्वास है कि आपकी लेखनी एक दिन निश्चित रूप से प्रखर बन कर उभरेगी !
जवाब देंहटाएंमैं तो ठहरा था,
तुम्ही नहीं ठहरे !
कितने प्रणय निवेदन किये,
कि ठहर जावो कुछ और पल,
क्या पता ये हसीं लम्हे,
फिर मिले न मिले,
ये आज इस चौखट पर,
जो कल्पना के सुन्दर फूल,
तुम्हारे आने से खिले थे,
फिर खिले ना खिले,
मगर तुम तो सब कुछ
अनसुना कर यों निकले,
मानो तुम हो बहरे,
मैं तो ठहरा था,
तुम्ही नहीं ठहरे !!