अँधा सा युग है ,
नंगा सा ज़माना ,
बेगानी शादी है ,
अब्दुल्ला दीवाना ,
ये दुनिया एक पागलखाना !
कहीं अजीब कपड़ो की सनक ,
बदनामी से नाम की ललक |
बात करने का सज नहीं ,
बने हैं सबसे बड़े सयाना |
ये दुनिया एक पागलखाना !
रोज़ यहाँ नयी नौटंकी ,
उलटी, सीधी , ढंग बेढंगी |
कोई कहीं बयान दे देता ,
कहीं दाखिल होता हलफनामा ,
ये दुनिया एक पागलखाना !
हर कोई अपने आप को अज़ीम है ,
दवा नहीं मालूम पर सब हकीम हैं |
मर्ज़ एक है , अब क्या छुपाना ,
क्या अपना और क्या बेगाना ?
ये दुनिया एक पागलखाना !
इतने पे भी तो बात न रूकती ,
ये दुनिया हँसाने से न चुकती |
मियाँ जिंदा हैं चाक चौबंद ,
किसी ने कर दिया पंचनामा ,
ये दुनिया एक पागलखाना !
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
हर कोई अपने आप को अज़ीम है ,
जवाब देंहटाएंदवा नहीं मालूम पर सब हकीम हैं |
Bahut khub likha hai.shubkamnayen.
ye duniya pagalkhana fir bhi to sab ki yahi sab kuchh bhata hai.
जवाब देंहटाएंaapkii kavita ne kar diya sabko deewanaa........bahut sundar
जवाब देंहटाएंप्रशंसा के लायक समझा , धन्यवाद ,आप सभी प्रबुद्ध जनों का |
जवाब देंहटाएंकहीं अजीब कपड़ो की सनक ,
जवाब देंहटाएंबदनामी से नाम की ललक ...
बहुत खूब ... नये अर्थ तलाशती लाजवाब रचना .....