मंगलवार, 17 नवंबर 2009

पुराना कपड़ा

खूंटी से टंगा , वह पुराना कपड़ा ,
फिर यादें ताज़ा कर गया |
पल पल ढलती उम्र को ,
यूँ मानो आधा कर गया |

उस बेचारे का भी एक दौर था ,
वो वक़्त भी कुछ और था |
क्या मस्ती भरे थे दिन ,
जीवन ख़ुशी का शोर था |

उजला उजला दिखता था सब कुछ ,
अपना सा लगता था सब कुछ |
जों भी देखा हो सपने में ,
बस हो जाएगा सच मुच |

पर अब इस कपड़े की तरह ,
वो दिन भी पुराने पड़ गए |
जैसे टंगा है यह खूंटी पर ,
वैसे ही कोने में जड़ गए |

यूँ दिखा कर के खुदको ,
मन अनमना सा कर गया |
ले जा रहा था फिर उस वक़्त में ,
पर मैं मना सा कर गया |

वो तो ले जाएगा , मैं चला भी जाऊँगा |
बाद की याद से डरता हूँ |
ओ दोस्त तू चला जा ,
मैं न आ पाऊंगा |
मैं न आ पाऊंगा |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

बुधवार, 4 नवंबर 2009

रुको न पथिक

सीने में लौ जलाकर, चले चलो |
एक धुन रमा कर, चले चलो| ,
मंजिल पाने के लिए है ,
रुको न पथिक , बढे चलो , बढे चलो |

क़दमों के निशाँ , छोड़ चलो |
दर्द से मुंह मोड़ चलो |
इस भाग्य के टुकडों को ,
फिर आपस में जोड़ चलो |

कौन मिला , कौन गया ,
सबसे नाता तोड़ चलो |
दौड़ है यह एक ज़िन्दगी ,
हर किसी से लगाके होड़ चलो |

आंधी आये या तूफ़ान ,
मस्तक उठाये लड़े चलो |
देखो थक कर बैठ न जाना ,
रुको न पथिक , बढे चलो , बढे चलो |

अक्षत डबराल
"निःशब्द" |