जिस दुनिया में ,
तन नहीं मन रहते हैं |
जिस जगह आप,
आप बनके रहते हैं |
उस चीज़ को घर कहते हैं |
सामान से नहीं ,
ऐशो आराम से नहीं |
जहां बस साथ होने से ,
ख़ुशी के दरिये बहते हैं |
उस चीज़ को घर कहते हैं |
जिस छाँव को पाने को,
इंसान भागे फिरते हैं |
दूर होकर ही पता लगता है ,
किस चीज़ को घर कहते हैं ....
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
सोमवार, 24 मई 2010
शनिवार, 8 मई 2010
दिल अज़ीज़ ज़िन्दगी ...
इंसान क्या ढूंढता है ?
बस दो बूँद ज़िन्दगी |
उम्र बीत जाती है ,
पर न मिलती ,
दिल अज़ीज़ ज़िन्दगी |
कभी रंग कम लगता है ,
कभी बस गम लगता है |
ज़िन्दगी को जितना करो ,
सब कम लगता है |
थक जाता है इंसान ,
इसकी तलाश में |
एक एक बाल पक जाता है ,
इसी पशोपेश में |
आखिरी वक़्त तक भी ,
पाना चाहता है उसको |
कंधे पर सर रखकर ,
आप बीती सुनाना चाहता है उसको |
सुना , फ़कीर कहते हैं ,
इस चीज़ की बहुत है संजीदगी |
खुदा एक बार को मिल सकता है ,
पर न मिलती दिल अज़ीज़ ज़िन्दगी |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
बस दो बूँद ज़िन्दगी |
उम्र बीत जाती है ,
पर न मिलती ,
दिल अज़ीज़ ज़िन्दगी |
कभी रंग कम लगता है ,
कभी बस गम लगता है |
ज़िन्दगी को जितना करो ,
सब कम लगता है |
थक जाता है इंसान ,
इसकी तलाश में |
एक एक बाल पक जाता है ,
इसी पशोपेश में |
आखिरी वक़्त तक भी ,
पाना चाहता है उसको |
कंधे पर सर रखकर ,
आप बीती सुनाना चाहता है उसको |
सुना , फ़कीर कहते हैं ,
इस चीज़ की बहुत है संजीदगी |
खुदा एक बार को मिल सकता है ,
पर न मिलती दिल अज़ीज़ ज़िन्दगी |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
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