साल दर साल उम्र की दीवारें लांघता हूँ ,
पर हर दीवार के पार की घास ,
जाने क्यूँ सूखती हुई मिलती है |
साल दर साल कुछ लकीरें ,
माथे पर खिंचती जा रही हैं ,
जाने क्यूँ गहराती हुई मिलती हैं |
साल दर साल मेरी नज़र ,
किसी शीशे पे पड़ती सांस सी ,
जाने क्यूँ धुंधलाती हुई मिलती है |
साल दर साल मेरी परछाई ,
जैसे चिढ़ी है मुझसे किसी बात पर,
जाने क्यूँ झुंझलाती हुई मिलती है |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"