शनिवार, 1 जनवरी 2011

साल दर साल ...

साल दर साल उम्र की दीवारें लांघता हूँ ,
पर हर दीवार के पार की घास ,
जाने क्यूँ सूखती हुई मिलती है |

साल दर साल कुछ लकीरें ,
माथे पर खिंचती जा रही हैं ,
जाने क्यूँ गहराती हुई मिलती हैं |

साल दर साल मेरी नज़र ,
किसी शीशे पे पड़ती सांस सी ,
जाने क्यूँ धुंधलाती हुई मिलती है |

साल दर साल मेरी परछाई ,
जैसे चिढ़ी है मुझसे किसी बात पर,
जाने क्यूँ झुंझलाती हुई मिलती है |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

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