रात को तनहा , जब लेटता हूँ
गुज़रे दिन के टुकड़े , आँखों में समेटता हूँ
तोलता हूँ , मैंने क्या खोया , क्या पाया ?
मैं क्या भूला , क्या साथ ले आया ?
लम्हे, कुछ देखने, कुछ फेंकने लायक
कुछ अनमने से , कुछ सहेजने लायक
इनको तोलते, हिसाब लगते जाने कब ,
मन की बहती भर जाती है
और डूबते सूरज की तरह धीरे धीरे ,
मेरी आँख लग जाती है
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
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