अक्सर याद आ जाता है घर ,
वो अपना पुराना बिस्तर |
वो सटीक तकिये की ऊँचाई ,
वो चौक का बनिया , वो हलवाई |
वो दूर से, रिश्तेदारों का आना ,
पानी की टंकी के पास, अपना पता बताना |
वो अपने कमरे के दरवाज़े की आवाज़ ,
वो जानपहचान कुछ आम , कुछ ख़ास |
वो अपनी घर की गली ,
थोड़ी कच्ची ,थोड़ी पथरीली |
वो अपने बगीचे की घास ,
आम की बौरों से आती भीनी मिठास |
और भी हैं बहुत एहसास ,
जो रह रह कर याद आते हैं |
पर जब भी माँ की याद आती है ,
तो नैन भीग जाते हैं |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
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