जाने कितना मेरा सफ़र है ,
दिन का ये कौन सा पहर है ?
जग, नींद से अंख मलता हूँ ,
थकता हूँ, पर चलता हूँ |
कभी रेत से पाँव हैं जलते ,
कभी ठण्ड से कांप न थमते ,
कभी बिजली से लड़ता हूँ ,
थकता हूँ , पर चलता हूँ |
कुछ एक हमसफ़र मिले ,
उनसे हँस मिलता हूँ |
रस्ते अलग हो ही जाते हैं ,
रोता हूँ , पर चलता हूँ |
ख्वाब देखा था कभी ,
बहुत आगे जाने का ,
उसी ख्वाब के लिए जलता हूँ ,
रुकता हूँ , पर चलता हूँ |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
शनिवार, 30 जनवरी 2010
सोमवार, 25 जनवरी 2010
गुरुवार, 7 जनवरी 2010
फलक देख !
क्यूँ देखता है जमीं को ?
नज़र उठा फलक देख !
क्या तपता , चमकता सूरज है ?
सर उठा , झलक देख !
हार मानकर बैठा है क्यूँ ?
चीटीं को जीतने की ललक देख !
औरों को मुश्किल नहीं क्या ?
उनकी उम्मीदों भरी पलक देख !
गिलास खाली नहीं , आधा भरा है क्या ?
कभी दुनिया से अलग देख !
कभी जला है जुनून की आग में ?
खुद पर जगा के अलख देख !
क्यूँ देखता है जमीं को ?
नज़र उठा फलक देख !
नज़र उठा फलक देख !
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
नज़र उठा फलक देख !
क्या तपता , चमकता सूरज है ?
सर उठा , झलक देख !
हार मानकर बैठा है क्यूँ ?
चीटीं को जीतने की ललक देख !
औरों को मुश्किल नहीं क्या ?
उनकी उम्मीदों भरी पलक देख !
गिलास खाली नहीं , आधा भरा है क्या ?
कभी दुनिया से अलग देख !
कभी जला है जुनून की आग में ?
खुद पर जगा के अलख देख !
क्यूँ देखता है जमीं को ?
नज़र उठा फलक देख !
नज़र उठा फलक देख !
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
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