शनिवार, 21 अप्रैल 2012

रिहा कर देते हैं |

तस्वीरों की शक्ल में , एक ज़माना कैद है ,
कभी कभी निगाहों से, उसको रिहा कर देते हैं |
इनपर नज़र रखने को यादें मुस्तैद हैं ,
कभी कभी आंसुओं से, उनको रिहा कर देते हैं |
कुछ जंज़ीरें हैं रिश्तों की , नातों की ,
कभी कभी बाज़ुओं से, उनको रिहा कर देते हैं |
कुछ नामदार पत्थर चिने हैं जिगर में ,
कभी कभी आरज़ुओं से, उनको रिहा कर देते हैं |
जब हद से बढ़ जाती है इन सब की तानाशाही,
कभी कभी दिल से ही,खुदको रिहा कर लेते हैं |

-अक्षत डबराल
"निःशब्द"

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