एक एक लम्हे के जाने का एहसास रहा,
पर दिन की गिनती न याद रही|
न मालूम पड़ा कि गुज़रा एक अरसा,
ना मालूम पड़ा कब उम्र ढली|
अब मायूस रहते हैं अलफ़ाज़ मेरे,
मुद्दत हो गयी जब कलम चली|
कभी कभी निकालता हूँ पुराने पते,
और घूमता हूँ ले उन्हें,
ख्यालों के ये गली, वो गली|
- अक्षत डबराल
"निःशब्द"
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