गर्भ में तेरे लावा भरता जा रहा ,
मनुष्य का मर्म मरता जा रहा |
पावन था तू , अब दूषित है |
हे विश्व , तू कहाँ जा रहा ?
जन्म लिया मुनियों ने यहीं ,
दैत्य भी कुछ हुए थे कहीं |
पर अब क्यों हर नर, पिशाच होता जा रहा ?
हे विश्व , तू कहाँ जा रहा ?
तेरी नदियाँ कभी माता थीं,
अन्नदाता , प्राणदाता थीं |
पर अब क्यों उनका आँचल, काला होता जा रहा ?
हे विश्व , तू कहाँ जा रहा ?
तेरे सागर जों की अब मृत हैं ,
इन्हीं सागरों से बना अमृत था|
अब क्यों लगता प्रलय निकट है , घोर कलियुग होता जा रहा ?
हे विश्व , तू कहाँ जा रहा ?
बंधन कभी अटूट होते थे ,
इश्वर से भी इतर होते थे |
पर अब क्यों बस नाम मात्र हैं , सब औपचारिक होता जा रहा ?
हे विश्व , तू कहाँ जा रहा ?
यूँ लगता है चक्र चाल है ,
इस विश्व का ये अंत काल है |
बहुत बढ़ गया पाप यहाँ , नया युग आवश्यक होता जा रहा ?
हे विश्व , तू कहाँ जा रहा ?
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
I never asked you to be evil, never told you to do treachery;
जवाब देंहटाएंIt is you, Oh noble man!!! who have diffused the anarchy.
I gave you all I had, taught you to do, see, and hear no bad;
But you let me down, in the blind race of keeping ahead.
Whose wrongdoing is it? Now you vehemently demand;
Forget it not; it was you, who had the power to command.
बहुत सुंदर और उत्तम भाव लिए हुए.... खूबसूरत रचना......
जवाब देंहटाएंdhanyavaad maanyavar
जवाब देंहटाएं