शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

बहुत दिनों से रोके रखा है ,
दिल में लफ़्ज़ों के सैलाब को |
पर अब न रोक सकता हूँ ,
कलम चलाने से जनाब को |

रोज़ लिखने की ज़िद करता है ,
बच्चों सी बेहद करता है |
हर कोई नहीं समझा सकता हुज़ूर ,
इस काम में बड़ा तज़ुर्बा लगता है |

बड़ा बेकरार है ये ,
अपनी दास्तान सुनाने को |
मजबूर कर बिठा दिया मुझे ,
अरमां अपने निकालने को |

आज लिख ले तू ,
कर ले पूरी अपनी हसरत |
कल यूँ न हो कि दिल तो रखा ,
पर कैद में रखा बेचारे को |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

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