गुरुवार, 26 अगस्त 2010

मोर्निंग वॉक

मान्य जनों,
यूँ तो मुझमें बहुत व्यसन हैं , किन्तु , आजकल "मोर्निंग वाक" की एक अच्छी आदत डालने का प्रयत्न कर रहा हूँ |
नॉएडा के स्टेडियम में प्रतिदिन सैर पर जाता हूँ , वहाँ का दृश्य देख साहित्यिक मस्तिष्क पर शुद्ध वायु के साथ कुछ कवि रस का प्रभाव, मैंने अनुभूत किया|उसको शब्दों में ढालने का एक प्रयास |

स्टेडियम के गेट से ज्यों ही ,
मैं भीतर जाता हूँ |
पीछे रह जाती एक दुनिया ,
अलग लोक में आता हूँ |

कोई दातुन तोड़ने को उछल रहा |
सुंदरी जा रही है आगे ,
भंवरा मन ही मन मचल रहा |
टीप टीप कर स्कूल से अपने ,
क्रिकेट - फुटबाल चल रहा |

कुछ तो सच में चलने आते हैं |
कुछ बस बातें तलने आते है |
कुछ बिना बात हंसने आते हैं |
कुछ कुछ तो ऐसे भी हैं ,
टन भर इत्र मलके आते हैं |

कुछ को देख , हंसी आती है |
जो आपको भागना पड़े ,
इतना फास्ट फ़ूड क्यूँ खाती हैं ?
पर कहाँ फर्क पड़ेगा वहाँ ,
टायर हट भी जाए , तो ट्यूब रह जाती है |

राजनीति यहाँ भी चलायी जाती है ,
सरकारें बनायी , गिराई जाती हैं |
कभी सुनिए ये चर्चाएँ ,
लगता है केंद्र की योजनायें ,
यहीं बनायी जाती हैं |

छोटे छोटे बच्चे भी हैं ,
चलना जो सीख रहे |
कभी ज़मीं पे गिरते जाते ,
कभी पिता की ऊँगली खींच रहे |
मात पिता के नैन, स्नेह से भींच रहे |

कभी कभी एक प्रेमी जोड़ा भी ,
आता है इधर साथ में |
एक टूटी बेंच पे बैठा रहता ,
हाथों को ले हाथ में |
रब राखा, मैं कहता ,
अब जो भी हो बाद में |

कुछ वृद्ध दिखेंगे आपको ,
एक कोने में बैठे हुए |
सरका दिए गए परे ,
आपस में ही अपने ,
सुख दुःख सुनाते हुए |

भीतर, इस अलग दुनिया में ,
क्या क्या हो रहा है |
छोड़ एक ठंडी सांस ,
मैं बाहर आ जाता हूँ ,
ऑफिस का समय हो रहा है |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

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