ले अपने जलते नयन ,
आधे सोये से चले आये |
ले अपने थकते पैर ,
गिरते संभलते चले आये |
जाना कहीं और था , यहाँ आना पड़ा ,
सो , अनमने से चले आये |
रोज़ रोज़ यूँ आधे मन से ,
सौतेले से अपनेपन से |
चल पड़ता हूँ उसी डगर पर ,
जों खड़ी खड़ी बुढती रहती है |
दिन चंद बचे हैं अबला के ,
कौन जाने , कब गुजर जाए |
बहुत ढीठ है ज़िन्दगी ,
जों चाहो, न कर पाओगे ,
अपनी मर्ज़ी करवाएगी |
ये यारी करने लायक नहीं ,
ज़बान इसकी न लीजियेगा ,
कौन जाने , कब मुकर जाए |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
सुन्दर कविता
जवाब देंहटाएंब्रह्माण्ड
dhanyavaad maanyavar
जवाब देंहटाएंmashaallah!! kya khoob likha hai dabral jee, anand aa gaya. dheedh zindagee ko aapne jis tarah apnee kriti se phatkar lagaee hai, us se to ise padhane ka mazaa aur badh gaya
जवाब देंहटाएंwaqai behad achchha likha hai