मंगलवार, 24 अगस्त 2010

कौन जाने ...

ले अपने जलते नयन ,
आधे सोये से चले आये |
ले अपने थकते पैर ,
गिरते संभलते चले आये |
जाना कहीं और था , यहाँ आना पड़ा ,
सो , अनमने से चले आये |

रोज़ रोज़ यूँ आधे मन से ,
सौतेले से अपनेपन से |
चल पड़ता हूँ उसी डगर पर ,
जों खड़ी खड़ी बुढती रहती है |
दिन चंद बचे हैं अबला के ,
कौन जाने , कब गुजर जाए |

बहुत ढीठ है ज़िन्दगी ,
जों चाहो, न कर पाओगे ,
अपनी मर्ज़ी करवाएगी |
ये यारी करने लायक नहीं ,
ज़बान इसकी न लीजियेगा ,
कौन जाने , कब मुकर जाए |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

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