अभी न आई वो शाम कि साथी,
तुमको साकी कह के पुकारूँ |
अभी वफ़ा के जाम उठाये जाने हैं ,
पी लूं , तो होश रहे ,
आगे किसके हाथों पिलाये जाने हैं |
अभी न आया वो तूफ़ान कि साथी ,
तुम्हारा नाम ले के पुकारूँ |
हम बस चार दिन तुम्हें जाने हैं ,
उल्फत के हज़ारों अभी ,
परवान चढाने जाने हैं |
अभी न आई वो घड़ी कि साथी ,
तुम्हें इस मोड़ पे पुकारूँ |
आगे बहुत मोड़ आने हैं ,
अभी बुनियाद डली है दोस्ती कि ,
महल बनाने जाने हैं |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें