मन के उलझे हैं तार ,
सुलझाए नहीं सुलझते ।
ऐसी क्या उलझन होगी ?
कि गिरह पे गिरह पड़ गयीं ?
कभी बुझते कभी सुलगते,
ये सुलझाए नहीं सुलझते ।
यादों के जालों से हैं तार ,
भीड़ से आते हैं बार बार ।
कौन सा सिरा पकडूँ , कौन सा छोडूँ ?
सरसरी रेत से जलते , फिसलते,
ये सुलझाए नहीं सुलझते ।
अरमानों की पतंगों को ,
मन की उमंगों को ,
अब कहाँ से डोर दूँ उनको ?
सब तार रहते हैं उलझते ,
ये सुलझाए नहीं सुलझते ।
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
सुलझाए नहीं सुलझते ।
ऐसी क्या उलझन होगी ?
कि गिरह पे गिरह पड़ गयीं ?
कभी बुझते कभी सुलगते,
ये सुलझाए नहीं सुलझते ।
यादों के जालों से हैं तार ,
भीड़ से आते हैं बार बार ।
कौन सा सिरा पकडूँ , कौन सा छोडूँ ?
सरसरी रेत से जलते , फिसलते,
ये सुलझाए नहीं सुलझते ।
अरमानों की पतंगों को ,
मन की उमंगों को ,
अब कहाँ से डोर दूँ उनको ?
सब तार रहते हैं उलझते ,
ये सुलझाए नहीं सुलझते ।
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
वाह ...बहुत ही बढि़या।
जवाब देंहटाएंdhanyavaad maanyavar
हटाएंकुछ अन्सुक्झे सवाल जीवन भर नहीं सुलझते .... उन्हें भूलना ही पढता है ...
जवाब देंहटाएंउम्दा रचना ...
dhanyavaad maanyavar
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