ज़िन्दगी की कुछ यादें आई थीं ,
कल देर शाम तक गुफ्तगू हुई ।
पर जैसे जैसे शाम ढली,
लम्हों ने मेरी आँखों को मींच दिया ,
और वक़्त ने पर्दा खींच दिया ।
आँख लगी, तो ख्वाब आये ,
भूले बिसरे ज़ज्बात लाये ।
पुरानी, सीली सी तस्वीरों को ले ,
मुझे अपनी बांहों में भींच लिया ,
और वक़्त ने पर्दा खींच दिया ।
यादें थीं तो खिंचाव भी था ,
नयी पुरानी का हिसाब भी था ।
फिर जब बरसीं वो सावन जैसे ,
मुझे ख़ुश्बू से यूँ तर सींच दिया ,
और वक़्त ने पर्दा खींच दिया ।
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
कल देर शाम तक गुफ्तगू हुई ।
पर जैसे जैसे शाम ढली,
लम्हों ने मेरी आँखों को मींच दिया ,
और वक़्त ने पर्दा खींच दिया ।
आँख लगी, तो ख्वाब आये ,
भूले बिसरे ज़ज्बात लाये ।
पुरानी, सीली सी तस्वीरों को ले ,
मुझे अपनी बांहों में भींच लिया ,
और वक़्त ने पर्दा खींच दिया ।
यादें थीं तो खिंचाव भी था ,
नयी पुरानी का हिसाब भी था ।
फिर जब बरसीं वो सावन जैसे ,
मुझे ख़ुश्बू से यूँ तर सींच दिया ,
और वक़्त ने पर्दा खींच दिया ।
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
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