वो तो ठूंठ ही थे , जिन्हें पत्तों की आस थी ,
पर पतझड़ भी तो जिद्दी था |
जो तनहा ही रहे ताउम्र खड़े ,
उन्हें भी एक साथ की प्यास थी |
वो तो ठूंठ ही थे , जिन्हें छुवन की आस थी ,
पर राह भी तो ज़ालिम थी |
जो आने न दिया अपने सामने उन्हें ,
सुनी न किसी ने , वो जो आवाज़ थी |
- अक्षत डबराल
पर पतझड़ भी तो जिद्दी था |
जो तनहा ही रहे ताउम्र खड़े ,
उन्हें भी एक साथ की प्यास थी |
वो तो ठूंठ ही थे , जिन्हें छुवन की आस थी ,
पर राह भी तो ज़ालिम थी |
जो आने न दिया अपने सामने उन्हें ,
सुनी न किसी ने , वो जो आवाज़ थी |
- अक्षत डबराल
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