शनिवार, 21 अप्रैल 2012

रिहा कर देते हैं |

तस्वीरों की शक्ल में , एक ज़माना कैद है ,
कभी कभी निगाहों से, उसको रिहा कर देते हैं |
इनपर नज़र रखने को यादें मुस्तैद हैं ,
कभी कभी आंसुओं से, उनको रिहा कर देते हैं |
कुछ जंज़ीरें हैं रिश्तों की , नातों की ,
कभी कभी बाज़ुओं से, उनको रिहा कर देते हैं |
कुछ नामदार पत्थर चिने हैं जिगर में ,
कभी कभी आरज़ुओं से, उनको रिहा कर देते हैं |
जब हद से बढ़ जाती है इन सब की तानाशाही,
कभी कभी दिल से ही,खुदको रिहा कर लेते हैं |

-अक्षत डबराल
"निःशब्द"

बुधवार, 18 अप्रैल 2012

क्यूँ हम?

क्यूँ हम नहीं लौटा सकते , वो वक़्त , वो लम्हा ?
क्यूँ हम नहीं लौटा सकते , वो जूनून , वो जज़्बा ?
क्यूँ हम नहीं लौटा सकते , वो नशा , वो फितूर ?
क्यूँ हम नहीं लौटा सकते , वो कशिश , वो सुरूर ?
क्यूँ हम नहीं लौटा सकते , वो शख्शियत, वो वज़ूद ?
क्यूँ हम नहीं लौटा सकते , वो शान , वो रसूक ?
- अक्षत डबराल
  "निःशब्द"

गुरुवार, 5 अप्रैल 2012

क्यों न चाँद पे पत्थर मार कर दो चाँद कर दूँ ?

क्यों न चाँद पे पत्थर मार कर दो चाँद कर दूँ ?
क्यों न उसके घमंड को बर्बाद कर दूँ ?
रात में खिलता है तो उसका सिर तना रहता है |
सारे आसमान का बादशाह बना रहता है |
क्यों न सब तारों के मन की बात कर दूँ ?
क्यों न चाँद पे पत्थर मार कर दो चाँद कर दूँ ?

दो होंगे, तो इसकी हुकूमत नहीं चलेगी |
इसकी चांदनी की फ़िज़ूल कीमत नहीं चलेगी |
न इसको देखने को लोग तरसेंगे,
न इस पर नाज़ नखरे बरसेंगे |
क्यों न इसके पापों का आज सब हिसाब कर दूँ ?
क्यों न चाँद पे पत्थर मार कर दो चाँद कर दूँ ?

- अक्षत डबराल
"निःशब्द"

मंगलवार, 3 अप्रैल 2012

पलकों से दो ख्वाब गिरे

पलकों से दो ख्वाब गिरे , मुझको सुबह तकिये पर मिले |
मैंने कहा तुम कौन हो भाई ? बोले, आपकी सेना , आपके सिपाही |

कौन सी सेना , कौन सिपाही ? मैंने कहाँ कभी करी लड़ाई ?
बोले, अरे राजन , आप भूल गए ? कल रात आप दरबार में थे ,
हम सब आपकी सरकार में थे |
आपने ही भेजी थी सेना , बोले थे सब विजय कर लेना |

अब चलिए , सब राज्य जीत लिया है |
आपको राजा मनोनीत किया है |
मैंने सोचा, क्या ये सच में हो रहा है ?
या मेरा दिमाग कुछ कारस्तानी बो रहा है ?

और जैसे मैं उठने लगा , वो सिपाही बैठने लगे |
बैठे तो ऐसे बैठे, की गायब ही हो गए |
मैं भी समझ गया की सब ख्वाब था ,
खुद से कहा, बेटा , तुम ज्यादा सो गए |

- अक्षत डबराल
निःशब्द

रविवार, 1 अप्रैल 2012

बोलता हूँ |

माथे पर लकीरें लेकर,
अपना ही ज़ेहन टटोलता हूँ |
मंजिलें बहुत हैं, रास्ते बहुत,
रास्ते में मिले कंकर तोलता हूँ |

कुछ सपने, कुछ अपने, जिनसे रिश्ते बन गए ,
किसको पकडूँ, किसको छोडूँ,
मैं सबको हमसफ़र बोलता हूँ |

सम्भाल कर रखी है हर याद मैंने,
कभी कभी चुपके से,
उस पुराने संदूक को खोलता हूँ |

मेरे नाम कुछ नहीं है शायद,
बस चंद लम्हे, किस्से ही हैं,
जितना माँगा उससे ज्यादा मिला मुझे,
मैं खुद को खुशकिस्मत बोलता हूँ |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"