मंगलवार, 14 जुलाई 2009

ज़िन्दगी

सचमुच कितना गूढ़ सवाल है ज़िन्दगी |
कहीं शान्ति तो कहीं बवाल है ज़िन्दगी |

सड़क किनारे झुग्गी में, बेबस, लाचार है ज़िन्दगी |
कहीं शानो शौकत भरी,चाँद लगे चार है ज़िन्दगी |

कहीं बेचैनी, चिंता भरी, नींद की गोली है ज़िन्दगी |
कहीं फुटपाथ पे मस्त, निश्चिंत, भोली है ज़िन्दगी |

जवान खून का जोश लिए, कहीं रफ्तार है ज़िन्दगी |
कहीं ढलती शाम सी, झुर्रियों का हार है ज़िन्दगी |

दीन दुनिया से परे ,कहीं सन्यास है ज़िन्दगी |
कहीं मादक, रसिक, कोई उपन्यास है ज़िन्दगी |

कोने में ढका, सहेजा हुआ,पुराना समान है ज़िन्दगी |
कहीं रोज़ आकाश की, इक नई उड़ान है ज़िन्दगी |

कहीं हर घर में जाना हुआ , मशहूर नाम है ज़िन्दगी |
मगर कहीं बेनामी के अंधेरों में, गुमनाम है ज़िन्दगी |

2 टिप्‍पणियां:

  1. बंधू, आपकी कविता को मैंने कुछ इस तरह गजल के अंदाज में पढा ;

    सचमुच कितना गूढ़ सवाल है ज़िन्दगी |
    कहीं शान्ति तो कहीं बवाल है ज़िन्दगी |

    सड़क किनारे झुग्गी में, बेबस, लाचार है ज़िन्दगी |
    कहीं शानो शौकत भरी,चाँद लगे चार है ज़िन्दगी |

    कहीं बेचैनी, चिंता भरी, नींद की गोली है ज़िन्दगी |
    कहीं फुटपाथ पे मस्त, निश्चिंत, भोली है ज़िन्दगी |

    जवान खून का जोश लिए, कहीं रफ्तार है ज़िन्दगी |
    कहीं ढलती शाम सी, झुर्रियों का हार है ज़िन्दगी |

    दीन दुनिया से परे ,कहीं सन्यास है ज़िन्दगी |
    कहीं मादक, रसिक, कोई उपन्यास है ज़िन्दगी |

    कोने में ढका, सहेजा हुआ,पुराना समान है ज़िन्दगी |
    कहीं रोज़ आकाश की, इक नई उड़ान है ज़िन्दगी |

    कहीं हर घर में जाना हुआ , मशहूर नाम है ज़िन्दगी |
    मगर कहीं बेनामी के अंधेरों में, गुमनाम है ज़िन्दगी |

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  2. dhnyavaad maanyavar

    aap hamesha hi mere bade ki tarah mera maargdarshan karte hain.

    ye drishti bani rahe bass.

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