शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

मुझे शिकायत है ...

ऐ बूंदों ,
मुझे तुमसे शिकायत है |
जब पड़ती हो , बस तन तरती हो |
मन बेचारा जो प्यासा है ,
उसपर कहाँ कब झरती हो ?

ऐ हवा ,
मुझे तुमसे शिकायत है |
मस्त मौला हो जब बहती हो ,
मुख को चूम चूम रहती हो ,
मन बेचारा जो जलता है ,
उससे कब कुछ कहती हो ?

ऐ खुशबू ,
मुझे तुमसे शिकायत है |
मंत्र मुग्ध जब कर देती हो ,
सब कुछ सुगन्धित कर देती हो ,
मन बेचारा जो सादा है ,
उसे कब छू देती हो ?

ऐ मदिरा ,
मुझे तुमसे शिकायत है |
नशा भरपूर कर देती हो ,
गम भुला ज़रूर देती हो ,
मन बेचारा गम में जगता है ,
उसे कब सुला देती हो ?

अक्षत डबराल
"निःशब्द"
शिवी भाई की अनुकम्पा से एक लैपटॉप व ब्रॉडबैंड की व्यवस्था हुई है ,
इसी सुर में प्रस्तुत है यह राधा श्याम का एक छोटा सा गीत ...

श्याम :
राधा राधा ,
तेरा श्याम तेरे बिन आधा ,
आधा सा दिन , आधा जीवन ,
आधा सोया , आधा जागा,
तेरा श्याम तेरे बिन आधा |

राधा :
दूर हूँ तुमसे , दूर है सूरज ,
दूर हैं रातें , दूर हैं शाम |
तुमसे ही तो मेरी हस्ती , तुमसे ही मेरा नाम ,
तुमसे ही, तुमसे ही , तुमसे ही मेरे श्याम |

श्याम :
प्रीत जों इतनी गर है मुझसे ,
पास नहीं , क्यूँ दूर है मुझसे ?
तकता हूँ इन राहों को ,
कभी जों तो तू निकले इनसे ?

राधा :
ऐसा नहीं, की मुझे प्रीत नहीं ,
पर मेरी चाहत , तुम समझे नहीं |
जों कह दूँ तो क्या बात रही ,
बिन कहे जों मैंने बात कही |

श्याम :
बस बातें बनाना बहुत हुआ राधा ,
इंतज़ार मत करवाओ ज्यादा |
देखो अब तो जग भी कहता ,
राधा , तेरा श्याम तेरे बिन आधा |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

बहुत दिनों से रोके रखा है ,
दिल में लफ़्ज़ों के सैलाब को |
पर अब न रोक सकता हूँ ,
कलम चलाने से जनाब को |

रोज़ लिखने की ज़िद करता है ,
बच्चों सी बेहद करता है |
हर कोई नहीं समझा सकता हुज़ूर ,
इस काम में बड़ा तज़ुर्बा लगता है |

बड़ा बेकरार है ये ,
अपनी दास्तान सुनाने को |
मजबूर कर बिठा दिया मुझे ,
अरमां अपने निकालने को |

आज लिख ले तू ,
कर ले पूरी अपनी हसरत |
कल यूँ न हो कि दिल तो रखा ,
पर कैद में रखा बेचारे को |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

रविवार, 18 अप्रैल 2010

हे विश्व , तू कहाँ जा रहा ?

गर्भ में तेरे लावा भरता जा रहा ,
मनुष्य का मर्म मरता जा रहा |
पावन था तू , अब दूषित है |
हे विश्व , तू कहाँ जा रहा ?

जन्म लिया मुनियों ने यहीं ,
दैत्य भी कुछ हुए थे कहीं |
पर अब क्यों हर नर, पिशाच होता जा रहा ?
हे विश्व , तू कहाँ जा रहा ?

तेरी नदियाँ कभी माता थीं,
अन्नदाता , प्राणदाता थीं |
पर अब क्यों उनका आँचल, काला होता जा रहा ?
हे विश्व , तू कहाँ जा रहा ?

तेरे सागर जों की अब मृत हैं ,
इन्हीं सागरों से बना अमृत था|
अब क्यों लगता प्रलय निकट है , घोर कलियुग होता जा रहा ?
हे विश्व , तू कहाँ जा रहा ?

बंधन कभी अटूट होते थे ,
इश्वर से भी इतर होते थे |
पर अब क्यों बस नाम मात्र हैं , सब औपचारिक होता जा रहा ?
हे विश्व , तू कहाँ जा रहा ?

यूँ लगता है चक्र चाल है ,
इस विश्व का ये अंत काल है |
बहुत बढ़ गया पाप यहाँ , नया युग आवश्यक होता जा रहा ?
हे विश्व , तू कहाँ जा रहा ?


अक्षत डबराल
"निःशब्द"