गुरुवार, 16 सितंबर 2010

क्या ... पाउँगा ?

इस गुमनामी की कैद से ,
क्या कभी छूट पाऊंगा ?
अपने काम की बढ़ाई ,
क्या कभी लूट पाऊंगा ?
बहुत घना अँधेरा है ,
क्या किरन बन फूट पाऊंगा ?

कितनी मुश्किलें हैं आस पास ,
इनपे कहर बन टूट पाऊंगा ?
बहुत डिगाएंगे दीन को मेरे ,
क्या ईमान अटूट पाऊंगा ?
एक अकेला हूँ , काम बहुत है ,
क्या हिम्मत जुटा पाऊंगा ?

चलते चलते बैठ गया जों ,
फिर से खड़ा हो पाऊंगा ?
छोटी बातें , छोटी सोच ,
क्या इनसे बड़ा हो पाऊंगा ?
अभी तो लोहे की ज़ंजीर हूँ ,
क्या सोने का कड़ा हो पाऊंगा ?

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

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