शनिवार, 18 सितंबर 2010

वो लड़की |

"ज़रा बैठने देंगे ?", एक मृदुल, सौम्य सी आवाज़ शायद मुझसे ही कुछ कह रही थी | मैं उदासीन बन, हमेशा से ही दार्शनिक बनने की कोशिश व ढोंग करता आया हूँ , पर कभी दूरदर्शन के अलावा कोई दर्शन नहीं किया | वही आज भी कर रहा था , किन्तु विनती के ढंग ने मुझे अपना भ्रम तोड़, इस व्यवहारिक दुनिया में वापिस लाने पर मजबूर कर दिया था| ये दिल्ली मेट्रो का लबालब भरा डिब्बा था , जिसकी सीट पर सौभाग्यवश मुझे अपना आधा वजूद समेटने की जगह मिल गयी थी| विनतिकार एक युवती थी, जों शायद पहली बार मेट्रो में सफ़र कर रही थी| माथे पे पसीना , चेहरे पे थोड़ी घबराहट व कौतूहल विराजमान थे |

मैंने थोड़ी अनमनसक्यता दिखाते हुए, धीरे से उसके लिए सीट छोड़ दी| उसने "थैंक यूँ " या "शुक्रिया" सा कुछ कहा और मेरी छोड़ी आधी सीट पर आधिपत्य जमा लिया | मुझे भी थोड़ा अच्छा लगा, कि यूँ तो किसी के लिए कुछ नहीं करते, सीट छोड़ कर ही थोड़ा कर्म पुण्य कमा लें | मैंने भी झूठी संतुष्टि की ठंडी सांस छोड़ बाहर नज़र घुमा ली| कुछ देर बाद नज़र घूम फिर के अन्दर आ गयी | वो ठीक मेरे सामने बैठी थी, मैंने देखा , साधारण कद काठी , हलके रंग के प्रिंटेड सलवार कमीज़ में, खुद में सिमटी हुई सी थी | उसको देख कर लगता था , किसी छोटे शहर की रहने वाली है | इतने साल घर से बाहर रहना , और दार्शनिक बनने की सनक ने मुझे व्यक्ति की पहचान करना तो सिखा ही दिया था | अब उसका सजीव प्रयोग करना मेरे लिए मनोरंजन का साधन था |

एक के बाद एक स्टेशन आते जा रहे थे | एक हुजूम उतरता था , और एक भीड़ चढ़ जाती थी | ये कभी न ख़तम होने वाला चक्र सा था | वही नीरस सी आवाज़ "दरवाज़े बायीं तरफ खुलेंगे" एक प्राईमरी स्कूल में रटे "दो इकम दो" "दो दूनी चार" सी प्रतीत हो रही थी | वो अपना काला सा बैग अपने सीने से चिपकाए बार बार स्टेशन दिखाने वाली पट्टी को घूर रही थी | पहली बारी सफ़र करते हैं तो स्टेशन निकल जाने का डर रहता है , वही डर उसको सता रहा था | अपने बगल में बैठी अधेड़ उम्र की एक हृष्ट पुष्ट महिला से कोई कागज़ दिखा दिखा कर पता मालूम कर रही थी | मैंने सोचा , ज़रूर कोई पेपर देने आई होगी, खैर हमे क्या , अपने रोज़ कम पेपर होते हैं , घर पर , ऑफिस में , उफ़ ! ऑफिस का ख्याल आते ही मैंने इस ख्याल को दफ़न कर बदल दिया |

"अगला स्टेशन नॉएडा सिटी सेंटर है " वही कृत्रिम आवाज़ गूंजी, और मेरा भी ध्यान चक्र टूटा | उतर कर पहले सब्जी लेनी है, खाना बनाना है, कपड़े प्रेस को देने हैं , हा हंत, एक मनुष्य , सौ काम | रेंगती हुई ट्रेन स्टेशन पर जा रुकी | फिर भीड़ का एक जत्था उतरा , एक दुसरे को धकेलता हुआ , जैसे एक सेकंड जल्दी पहुँच कर उन्हें मिल्खा सिंह की संज्ञा मिल जायेगी | खैर , मैं भी उतरा , मेरे पीछे वो लड़की भी उतरी | स्टेशन के बाहर आते ही मुझसे बोली ,"ये सेक्टर बासट कहाँ पड़ेगा , मैं यहाँ नयी हूँ "| मैंने दो तीन पल सोच के कहा , "आपने बासट में कहाँ जाना है , बासट तो बहुत बड़ा है "|

ये सुन उसने एक एडमिट कार्ड मुझे दिखाया| मैंने देखा , वो उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग की मेन परीक्षा का एडमिट कार्ड था | मैंने उससे कहा ,"चलो मैं आपको छोड़ देता हूँ , मैंने वहीँ जाना है "| ये सुन उसे थोड़ा अजीब लगा , पर मेरे बर्ताव से उसने असुरक्षित नहीं महसूस किया सो वो तैयार हो गयी | हम लोग एक ऑटो में चले, मैंने उससे उसकी तैयारी के बारे में पूछा , कुछ एक ज्वलंत मुद्दों पर भी उसकी राय देखनी चाही | उसके दिखने और बोलने में बहुत अंतर था | उसके वाक्य सटीक , ज्ञान उत्तम व वाक् पटुता प्रशंसनीय थी |
थोड़ी ही देर में उसने मुझे बेहद प्रभावित कर दिया था | मुझे उसकी हर बात पे यही लगता था कि हमे ऐसी ही नारियां चाहियें, जों समाज को आगे ले जाएँ |

अपनी व्यर्थ कि दार्शनिकता से जों मैंने इस नारी का कमज़ोर चित्रण किया था , वही मुझ पर अब हंस रहा था | मैं अपने घर न जाकर उल्टा इसके सेण्टर पे आया , ये समझ के कि ये तो कमज़ोर नारी है , कहीं इसे जगह मिले न मिले , पर मैं गलत था , एक दम गलत | ये एक सशक्त नारी थी , जिसे पता था कि वो कहाँ जा रही है , किस रास्ते जा रही है, और कहाँ जाके उसका सफ़र खतम होगा | इसी जद्दोजहद के बीच उसका सेंटर आ गया , मैंने उतर कर उसको बेस्ट ऑफ़ लक कहा , उससे पैसे देने को मना किया , पर वो दे कर ही मानी | खैर चलो, मुझे देर तो हो ही गयी थी , उसी ऑटो को ले मैं घर आ गया |

समय अपनी गति से चलता है , चलता रहा | मेरे जीवन का चक्र चाल , ऑफिस घर , घर ऑफिस भी चलता रहा | एक दिन अखबार में फोटो पर ध्यान गया | बहुत याद किया परन्तु याद न आया | दो तीन दिन तक वो कील सी दिमाग में गडी रही | यकायक एक दिन चाय पीते हुए वो चेहरा और वाकया याद आ गया| घर आकर वो अखबार खोजा , देखा , उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग में प्रथम स्थान पाने वाली वही लड़की थी , जिसको मैंने सेंटर पर छोड़ा था ! बस मुझे उस दिन इतनी ख़ुशी हुई, कि लगा मानो मैंने ही टॉप किया हो | मैंने उसका नाम नहीं पूछा था उस दिन , मेरे लिए वो एक नारी के स्वावलंबन का जीता जागता नमूना थी , और मैंने उसे वही रहने दिया, कोई नाम न देकर |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

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