मंगलवार, 27 मार्च 2012
गुरुवार, 22 मार्च 2012
और वक़्त ने पर्दा खींच दिया ...
ज़िन्दगी की कुछ यादें आई थीं ,
कल देर शाम तक गुफ्तगू हुई ।
पर जैसे जैसे शाम ढली,
लम्हों ने मेरी आँखों को मींच दिया ,
और वक़्त ने पर्दा खींच दिया ।
आँख लगी, तो ख्वाब आये ,
भूले बिसरे ज़ज्बात लाये ।
पुरानी, सीली सी तस्वीरों को ले ,
मुझे अपनी बांहों में भींच लिया ,
और वक़्त ने पर्दा खींच दिया ।
यादें थीं तो खिंचाव भी था ,
नयी पुरानी का हिसाब भी था ।
फिर जब बरसीं वो सावन जैसे ,
मुझे ख़ुश्बू से यूँ तर सींच दिया ,
और वक़्त ने पर्दा खींच दिया ।
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
कल देर शाम तक गुफ्तगू हुई ।
पर जैसे जैसे शाम ढली,
लम्हों ने मेरी आँखों को मींच दिया ,
और वक़्त ने पर्दा खींच दिया ।
आँख लगी, तो ख्वाब आये ,
भूले बिसरे ज़ज्बात लाये ।
पुरानी, सीली सी तस्वीरों को ले ,
मुझे अपनी बांहों में भींच लिया ,
और वक़्त ने पर्दा खींच दिया ।
यादें थीं तो खिंचाव भी था ,
नयी पुरानी का हिसाब भी था ।
फिर जब बरसीं वो सावन जैसे ,
मुझे ख़ुश्बू से यूँ तर सींच दिया ,
और वक़्त ने पर्दा खींच दिया ।
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
सोमवार, 19 मार्च 2012
वो तो ठूंठ ही थे ...
वो तो ठूंठ ही थे , जिन्हें पत्तों की आस थी ,
पर पतझड़ भी तो जिद्दी था |
जो तनहा ही रहे ताउम्र खड़े ,
उन्हें भी एक साथ की प्यास थी |
वो तो ठूंठ ही थे , जिन्हें छुवन की आस थी ,
पर राह भी तो ज़ालिम थी |
जो आने न दिया अपने सामने उन्हें ,
सुनी न किसी ने , वो जो आवाज़ थी |
- अक्षत डबराल
पर पतझड़ भी तो जिद्दी था |
जो तनहा ही रहे ताउम्र खड़े ,
उन्हें भी एक साथ की प्यास थी |
वो तो ठूंठ ही थे , जिन्हें छुवन की आस थी ,
पर राह भी तो ज़ालिम थी |
जो आने न दिया अपने सामने उन्हें ,
सुनी न किसी ने , वो जो आवाज़ थी |
- अक्षत डबराल
शनिवार, 17 मार्च 2012
Nothing's ....
Nothing's nice, as cooking rice on a Saturday!
Nothing's bad, as looking sad on a Sunday!
Nothing's poor, as a long tour on a Monday!
Nothing's old, as a boss' scold on a Tuesday!
Nothing's cruel, as a status mail on a Wednesday|
Nothing's wrong, as a argument strong on a Thursday!
Nothing's dry, as a teetotaler guy on a Friday!
- Akshat Dabral
शुक्रवार, 16 मार्च 2012
ये सुलझाए नहीं सुलझते ।
मन के उलझे हैं तार ,
सुलझाए नहीं सुलझते ।
ऐसी क्या उलझन होगी ?
कि गिरह पे गिरह पड़ गयीं ?
कभी बुझते कभी सुलगते,
ये सुलझाए नहीं सुलझते ।
यादों के जालों से हैं तार ,
भीड़ से आते हैं बार बार ।
कौन सा सिरा पकडूँ , कौन सा छोडूँ ?
सरसरी रेत से जलते , फिसलते,
ये सुलझाए नहीं सुलझते ।
अरमानों की पतंगों को ,
मन की उमंगों को ,
अब कहाँ से डोर दूँ उनको ?
सब तार रहते हैं उलझते ,
ये सुलझाए नहीं सुलझते ।
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
सुलझाए नहीं सुलझते ।
ऐसी क्या उलझन होगी ?
कि गिरह पे गिरह पड़ गयीं ?
कभी बुझते कभी सुलगते,
ये सुलझाए नहीं सुलझते ।
यादों के जालों से हैं तार ,
भीड़ से आते हैं बार बार ।
कौन सा सिरा पकडूँ , कौन सा छोडूँ ?
सरसरी रेत से जलते , फिसलते,
ये सुलझाए नहीं सुलझते ।
अरमानों की पतंगों को ,
मन की उमंगों को ,
अब कहाँ से डोर दूँ उनको ?
सब तार रहते हैं उलझते ,
ये सुलझाए नहीं सुलझते ।
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
गुरुवार, 1 मार्च 2012
मिल जाएगा
कभी राह की तलाश में चलिए,
चौराह मिल जाएगा ।
कभी उजाले की तलाश में चलिए,
सवेरा मिल जाएगा ।
कभी बूँद की तलाश में चलिए,
समंदर मिल जाएगा ।
कभी खुद की तलाश में चलिए ,
मुकद्दर मिल जाएगा ।
अक्षत डबराल
"निःशब्द"।
चौराह मिल जाएगा ।
कभी उजाले की तलाश में चलिए,
सवेरा मिल जाएगा ।
कभी बूँद की तलाश में चलिए,
समंदर मिल जाएगा ।
कभी खुद की तलाश में चलिए ,
मुकद्दर मिल जाएगा ।
अक्षत डबराल
"निःशब्द"।
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