शुक्रवार, 16 जुलाई 2010

मैं हूँ आज का मानव , मैं अँधा हूँ |

मेरा घर , मेरा परिवार , मैं ,
ये कुशल हैं , तो मैं चंगा हूँ |
मेरी यही सोच है ,
मैं हूँ आज का मानव , मैं अँधा हूँ |

पहले कुटुंब होते थे ,
संबंध लम्ब , अति लम्ब होते थे |
किन्तु सब धूमिल इतिहास है ,
कूपमंडूक बन , कुँए के रंग में रंगा हूँ |
मैं हूँ आज का मानव , मैं अँधा हूँ |

कभी मुझे प्रभु का भय था ,
अब प्रभु को मुझसे भय है |
पाप कर सब सिद्धियाँ पाकर ,
मैं विष्णु, मैं महेश, मैं ही ब्रह्मा हूँ |
मैं हूँ आज का मानव , मैं अँधा हूँ |

किन्तु न्याय का वार अकाट्य है ,
भान है मुझे , मेरे जों ये नाट्य हैं ,
इनका प्रतिफल अवश्य मिलेगा |
भर गया है घड़ा, तब भी धुन में रमा हूँ ,
मैं हूँ आज का मानव , मैं अँधा हूँ |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

3 टिप्‍पणियां:

  1. कभी मुझे प्रभु का भय था ,
    अब प्रभु को मुझसे भय है |
    पाप कर सब सिद्धियाँ पाकर ,
    मैं विष्णु, मैं महेश, मैं ही ब्रह्मा हूँ |
    मैं हूँ आज का मानव , मैं अँधा हूँ |

    aaj ka saty, sahmat Thanks for this artcle.

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