मंगलवार, 21 सितंबर 2010

समझौते !

बचपन से आज तक ,
सुबह से रात तक ,
हम डरते आये हैं |
बस समझौते करते आये हैं |

कमियों से , खुशियों से |
सदियों से, परिस्थितियों से |
अपनी हार करते आये हैं ,
बस समझौते करते आये हैं |

कभी धूप में नंगे पाँव चले हैं ,
कभी बरसात में बेछांव चले हैं |
अपने घाव छुपाया करते आये हैं ,
बस समझौते करते आये हैं |

कुछ पाने को दुआ करते हैं |
खुद से जों हुआ , करते हैं |
कुछ दुआएं भुलाया करते आये हैं ,
बस समझौते करते आये हैं |

यूँ ख्वाब देखने की कीमत नहीं होती ,
पर अब इन्हें देखने की हिम्मत नहीं होती |
इनका किराया अदा करते आये हैं ,
बस समझौते करते आये हैं |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

सोमवार, 20 सितंबर 2010

सड़कें |

सरपट भागती , एक दुसरे को काटती ,
बेजान कितनी सड़कें, एक ज़माने से दौड़ रहीं हैं |
इनकी कोई मंजिल नहीं , या शायद कभी रही हो |

इससे पहले ये रास्ते हुआ करती थीं |
तब इनको अपने मुसाफिर का इलम था ,
पर अब ये सड़कें हैं , बाखुदा एक नाम के साथ |

इनके रंग जैसा ही दिल हो गया है इनका |
काला और कठोर , आप चल तो लोगे ,
पर जल्द ही आपके पैर दुखेंगे |

शहर की बदलती सूरत की गवाह हैं ये |
इतने सितम देख सहम गयी होंगी ,
तभी इन्हें कुछ महसूस नहीं होता , बस भाग रही हैं |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

शनिवार, 18 सितंबर 2010

वो लड़की |

"ज़रा बैठने देंगे ?", एक मृदुल, सौम्य सी आवाज़ शायद मुझसे ही कुछ कह रही थी | मैं उदासीन बन, हमेशा से ही दार्शनिक बनने की कोशिश व ढोंग करता आया हूँ , पर कभी दूरदर्शन के अलावा कोई दर्शन नहीं किया | वही आज भी कर रहा था , किन्तु विनती के ढंग ने मुझे अपना भ्रम तोड़, इस व्यवहारिक दुनिया में वापिस लाने पर मजबूर कर दिया था| ये दिल्ली मेट्रो का लबालब भरा डिब्बा था , जिसकी सीट पर सौभाग्यवश मुझे अपना आधा वजूद समेटने की जगह मिल गयी थी| विनतिकार एक युवती थी, जों शायद पहली बार मेट्रो में सफ़र कर रही थी| माथे पे पसीना , चेहरे पे थोड़ी घबराहट व कौतूहल विराजमान थे |

मैंने थोड़ी अनमनसक्यता दिखाते हुए, धीरे से उसके लिए सीट छोड़ दी| उसने "थैंक यूँ " या "शुक्रिया" सा कुछ कहा और मेरी छोड़ी आधी सीट पर आधिपत्य जमा लिया | मुझे भी थोड़ा अच्छा लगा, कि यूँ तो किसी के लिए कुछ नहीं करते, सीट छोड़ कर ही थोड़ा कर्म पुण्य कमा लें | मैंने भी झूठी संतुष्टि की ठंडी सांस छोड़ बाहर नज़र घुमा ली| कुछ देर बाद नज़र घूम फिर के अन्दर आ गयी | वो ठीक मेरे सामने बैठी थी, मैंने देखा , साधारण कद काठी , हलके रंग के प्रिंटेड सलवार कमीज़ में, खुद में सिमटी हुई सी थी | उसको देख कर लगता था , किसी छोटे शहर की रहने वाली है | इतने साल घर से बाहर रहना , और दार्शनिक बनने की सनक ने मुझे व्यक्ति की पहचान करना तो सिखा ही दिया था | अब उसका सजीव प्रयोग करना मेरे लिए मनोरंजन का साधन था |

एक के बाद एक स्टेशन आते जा रहे थे | एक हुजूम उतरता था , और एक भीड़ चढ़ जाती थी | ये कभी न ख़तम होने वाला चक्र सा था | वही नीरस सी आवाज़ "दरवाज़े बायीं तरफ खुलेंगे" एक प्राईमरी स्कूल में रटे "दो इकम दो" "दो दूनी चार" सी प्रतीत हो रही थी | वो अपना काला सा बैग अपने सीने से चिपकाए बार बार स्टेशन दिखाने वाली पट्टी को घूर रही थी | पहली बारी सफ़र करते हैं तो स्टेशन निकल जाने का डर रहता है , वही डर उसको सता रहा था | अपने बगल में बैठी अधेड़ उम्र की एक हृष्ट पुष्ट महिला से कोई कागज़ दिखा दिखा कर पता मालूम कर रही थी | मैंने सोचा , ज़रूर कोई पेपर देने आई होगी, खैर हमे क्या , अपने रोज़ कम पेपर होते हैं , घर पर , ऑफिस में , उफ़ ! ऑफिस का ख्याल आते ही मैंने इस ख्याल को दफ़न कर बदल दिया |

"अगला स्टेशन नॉएडा सिटी सेंटर है " वही कृत्रिम आवाज़ गूंजी, और मेरा भी ध्यान चक्र टूटा | उतर कर पहले सब्जी लेनी है, खाना बनाना है, कपड़े प्रेस को देने हैं , हा हंत, एक मनुष्य , सौ काम | रेंगती हुई ट्रेन स्टेशन पर जा रुकी | फिर भीड़ का एक जत्था उतरा , एक दुसरे को धकेलता हुआ , जैसे एक सेकंड जल्दी पहुँच कर उन्हें मिल्खा सिंह की संज्ञा मिल जायेगी | खैर , मैं भी उतरा , मेरे पीछे वो लड़की भी उतरी | स्टेशन के बाहर आते ही मुझसे बोली ,"ये सेक्टर बासट कहाँ पड़ेगा , मैं यहाँ नयी हूँ "| मैंने दो तीन पल सोच के कहा , "आपने बासट में कहाँ जाना है , बासट तो बहुत बड़ा है "|

ये सुन उसने एक एडमिट कार्ड मुझे दिखाया| मैंने देखा , वो उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग की मेन परीक्षा का एडमिट कार्ड था | मैंने उससे कहा ,"चलो मैं आपको छोड़ देता हूँ , मैंने वहीँ जाना है "| ये सुन उसे थोड़ा अजीब लगा , पर मेरे बर्ताव से उसने असुरक्षित नहीं महसूस किया सो वो तैयार हो गयी | हम लोग एक ऑटो में चले, मैंने उससे उसकी तैयारी के बारे में पूछा , कुछ एक ज्वलंत मुद्दों पर भी उसकी राय देखनी चाही | उसके दिखने और बोलने में बहुत अंतर था | उसके वाक्य सटीक , ज्ञान उत्तम व वाक् पटुता प्रशंसनीय थी |
थोड़ी ही देर में उसने मुझे बेहद प्रभावित कर दिया था | मुझे उसकी हर बात पे यही लगता था कि हमे ऐसी ही नारियां चाहियें, जों समाज को आगे ले जाएँ |

अपनी व्यर्थ कि दार्शनिकता से जों मैंने इस नारी का कमज़ोर चित्रण किया था , वही मुझ पर अब हंस रहा था | मैं अपने घर न जाकर उल्टा इसके सेण्टर पे आया , ये समझ के कि ये तो कमज़ोर नारी है , कहीं इसे जगह मिले न मिले , पर मैं गलत था , एक दम गलत | ये एक सशक्त नारी थी , जिसे पता था कि वो कहाँ जा रही है , किस रास्ते जा रही है, और कहाँ जाके उसका सफ़र खतम होगा | इसी जद्दोजहद के बीच उसका सेंटर आ गया , मैंने उतर कर उसको बेस्ट ऑफ़ लक कहा , उससे पैसे देने को मना किया , पर वो दे कर ही मानी | खैर चलो, मुझे देर तो हो ही गयी थी , उसी ऑटो को ले मैं घर आ गया |

समय अपनी गति से चलता है , चलता रहा | मेरे जीवन का चक्र चाल , ऑफिस घर , घर ऑफिस भी चलता रहा | एक दिन अखबार में फोटो पर ध्यान गया | बहुत याद किया परन्तु याद न आया | दो तीन दिन तक वो कील सी दिमाग में गडी रही | यकायक एक दिन चाय पीते हुए वो चेहरा और वाकया याद आ गया| घर आकर वो अखबार खोजा , देखा , उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग में प्रथम स्थान पाने वाली वही लड़की थी , जिसको मैंने सेंटर पर छोड़ा था ! बस मुझे उस दिन इतनी ख़ुशी हुई, कि लगा मानो मैंने ही टॉप किया हो | मैंने उसका नाम नहीं पूछा था उस दिन , मेरे लिए वो एक नारी के स्वावलंबन का जीता जागता नमूना थी , और मैंने उसे वही रहने दिया, कोई नाम न देकर |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

गुरुवार, 16 सितंबर 2010

क्या ... पाउँगा ?

इस गुमनामी की कैद से ,
क्या कभी छूट पाऊंगा ?
अपने काम की बढ़ाई ,
क्या कभी लूट पाऊंगा ?
बहुत घना अँधेरा है ,
क्या किरन बन फूट पाऊंगा ?

कितनी मुश्किलें हैं आस पास ,
इनपे कहर बन टूट पाऊंगा ?
बहुत डिगाएंगे दीन को मेरे ,
क्या ईमान अटूट पाऊंगा ?
एक अकेला हूँ , काम बहुत है ,
क्या हिम्मत जुटा पाऊंगा ?

चलते चलते बैठ गया जों ,
फिर से खड़ा हो पाऊंगा ?
छोटी बातें , छोटी सोच ,
क्या इनसे बड़ा हो पाऊंगा ?
अभी तो लोहे की ज़ंजीर हूँ ,
क्या सोने का कड़ा हो पाऊंगा ?

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

शनिवार, 11 सितंबर 2010

मदिरा ...

मदिरा नहीं है,
होश में लाता , पाक पानी है |
सुरूर नहीं है ,
खुद से मिलने की , अनकही कहानी है |
नशे का क्या है ,
कल उतर जाएगा , बस बेहोशी रह जानी है |

शराब बुरी है ,
यह बात सुनी , बहुतों की जुबानी है |
पर मेरी ज़रा दोस्ती है इससे ,
जब ये पूरी निभाती है तो, मुझे भी निभानी है |
यूँ हो जाता हूँ जब तन्हा,
दुआ सलाम की बातें , इसको ही सुनानी हैं |

आज की शाम को ,
दीवाना करदे जों , आयी वो जवानी है |
खनका दो जाम दो चार ,
वरना ये जवानी , अधूरी रह जानी है |
पर नशे का दोष मदिरा को न देना,
इसमें नशा नहीं, ये तो पाक पानी है |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

सोमवार, 6 सितंबर 2010

तब अब ...

एकांत में बैठे बैठे ,
कभी मन उठके चल पड़ता है |
उन गलियों, मैदानों, खंडहरों में ,
जहाँ कभी अपनी पैर की आहट पड़ती थी |
अब वहां सन्नाटा चीखता है |

कट गए , काट दिए ,
उजड़ गए, उजाड़ दिए ,
वो बूढ़े बुज़ुर्ग से लम्बे पेड़ |
जों वक़्त के आंधी तूफ़ान ने ,
तोड़े, मरोड़े , उखाड़ दिए |

कुछ पत्थर के तुकड़ें है ,
अनमने से , बेपरवाह पड़े है |
कभी घर बना होगा इनसे भी कोई ,
उम्र तो कब की बीत चुकी इनकी ,
मौत न आई, तो बेसहारा पड़े हैं |

वहां बचीं है बस कंटीली झाड़,
करती वीराने से प्यार लाड़,
आज उसकी भी जगह खाना चाहती है |
आप जों जाए वहां तो ,
सौतेली मां सी डांट - भगाना चाहती है |

हिम्मत कर में यहाँ आ तो गया ,
पर इतनी जल्दी क्या जा पाऊंगा |
ये जगह मेरी थी कभी ,
दुखड़ा ही सुन लूँगा इसका ,
कर तो कुछ न पाऊंगा |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"