मंगलवार, 16 जून 2009

हीरा बनना है !

दिन रात चलता चलता ,
अब रुक सा गया हूँ
शायद इन रास्तों के आगे ,
झुक सा गया हूँ

धीरे धीरे मेरा ,
वेग छूटता जा रहा
और थककर मेरा ,
शरीर टूटता जा रहा

अभी तो सफर मेरा ,
हुआ नही आधा भी
पर मुझसे अब आगे ,
और चला जाता नही

फ़िर भी उठता हूँ , चलता हूँ
यूँ हारकर बैठना ,
महानता का काम नहीं
मुझे तो हीरा बनना है ,
कोई कोयला आम नहीं

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

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