दिन रात चलता चलता ,
अब रुक सा गया हूँ
शायद इन रास्तों के आगे ,
झुक सा गया हूँ
धीरे धीरे मेरा ,
वेग छूटता जा रहा
और थककर मेरा ,
शरीर टूटता जा रहा
अभी तो सफर मेरा ,
हुआ नही आधा भी
पर मुझसे अब आगे ,
और चला जाता नही
फ़िर भी उठता हूँ , चलता हूँ
यूँ हारकर बैठना ,
महानता का काम नहीं
मुझे तो हीरा बनना है ,
कोई कोयला आम नहीं
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
Hmmmm..thts true bro...have to keep on working....rukna nahi hai....
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