कभी मन रहता है ऊन जैसा ,
जिसके रेशे उलझे रहते हैं |
कभी मन रहता है मकड़ी के जाले सा ,
ख़याल जैसे फंसते रहते हैं |
कभी मन रहता है सूखते तालाब सा ,
जिसमें थोड़े ही प्राण रहते हैं |
कभी मन रहता है गर्मी की फसल सा ,
जिसमें थोड़े ही धान रहते हैं |
कभी मन रहता है अँधेरी चौखट सा ,
एक दिए की आस रहती है |
कभी मन रहता है थके मुसाफिर सा ,
अपने सफ़र की प्यास रहती है |
अक्षत डबराल
कभी मन रहता है गर्मी की फसल सा ,
जवाब देंहटाएंजिसमें थोड़े ही धान रहते हैं |
bahut badhiyaa
मन की कश्मकश को खूब कहा है ..
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