ख़्वाबों का बोझ था ,
आँखें कब तक सहतीं |
जाने किस का दोष था ,
पलकें कब तक कहतीं |
उसके आने कि आस में ,
राहें कब तक रहतीं |
इन साँसों में घुली ,
आँहें कब तक रहतीं |
थोड़ा ही था पानी उनमें ,
धारा कब तक बहतीं |
चुप ही हैं सब हवाएं ,
अपनी कब तक कहतीं |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
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