बुधवार, 29 जून 2011

कब तक

ख़्वाबों का बोझ था ,
आँखें कब तक सहतीं |
जाने किस का दोष था ,
पलकें कब तक कहतीं |

उसके आने कि आस में ,
राहें कब तक रहतीं |
इन साँसों में घुली ,
आँहें कब तक रहतीं |

थोड़ा ही था पानी उनमें ,
धारा कब तक बहतीं |
चुप ही हैं सब हवाएं ,
अपनी कब तक कहतीं |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

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