नैनो को तो सुला देता हूँ ,
इन सपनों का क्या करूँ ?
रात में देखता है हर कोई ,
दिन में दिखने का क्या करूँ ?
कभी भुलाना चाहता हूँ इनको ,
पर इन यादों का क्या करूँ ?
दूर छोड़ आता हूँ रोज़ इन्हें ,
मेरा पीछा करने का क्या करूँ ?
अब ये मेरे साए से जुड़ गए हैं ,
इस परछाई का क्या करूँ ?
हाँ है तो ये सच्चाई ,
पर इस सच्चाई का क्या करूँ ?
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
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