शुक्रवार, 17 जून 2011

काला बादल

और निकल आया हवा से लड़ता ,
बेलगाम वो काला बादल |
अपने भाई सफ़ेद बादल को ,
डरा धमका के किया बेदखल |

शोर मचाया , रौब दिखाया ,
बिजली फेंकी , अंधड़ चलाया |
बारिश को भी खूब चिढ़ाया ,
सुन सुन उसे भी रोना आया |

क्यों है ये यूँ गर्म तेल सा,
घराने कि काली भेड़ सा |
आसमान पे यूँ करता कब्ज़ा ,
मानो हो बरगद के पेड़ सा |

आना जाने कि इसकी मनमानी है ,
खुराक बस हवा पानी है |
कब बरसे कहर बने ,कब करे बस मज़ाक ,
ये कब किसने जानी है |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें