सोमवार, 29 जून 2009

आज नकद , कल उधार |

आज हर तरफ़ है यह बहार ,
आज नकद , कल उधार |

दोस्ती यारी सब बिकाऊ है ,
नीलाम हुए इश्क और प्यार |
दो मीठे बोल न मिलते ,
सब कुछ , आज नकद , कल उधार |

आपसी विश्वास का गला घुँट गया है ,
मरणासन्न हुए भाईचारा और सौहार्द |
पर ये पुरानी बातें हैं यार ,
नया फैशन , आज नकद , कल उधार |

इस निठुर दुनिया को इसमें ,
आता बहुत लुत्फ है |
आजकल इसका नारा ,
आज नकद , कल उधार ,
परसों मुफ्त है !

इसलिए भाइयों मेरी बातों पे मत जाना |
परसों सब मुफ्त मिलेगा ,
परसों आना |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

शुक्रवार, 26 जून 2009

सुन दोस्त |

सुन दोस्त , ग़ज़ल ये वफ़ा की ,
मैं तेरे नाम करता हूँ |
सामने तो कुछ कह न सका ,
ऐसे ही बयाँ करता हूँ |

जब पास था तू ,
न होश था कि,
तू इतना अज़ीज़ है |

और इतना दूर मुझसे ,
तू अब हो गया है |
हर चाह ,हर इंतज़ार का ,
तू सबब हो गया है |

जो मिले तू तो मुझसे ,
सब कहना चाहता हूँ |
अब न जुदा हों ,
ऐसे मिलना चाहता हूँ |

देख देख तुझको जीभर ,
लफ्जों के जाम भरता रहूँ |
तू सामने बैठा रहे ,
मैं आंखों से पीता रहूँ |

अक्षत डबराल

गुरुवार, 25 जून 2009

एक लक्ष्य मिला है |

जबसे मुझे जीवन में ,
एक लक्ष्य मिला है |
रख रखकर देखा ख़ुद को इसमें ,
वह मनोहर दृश्य मिला है |

अब घिसने की , लड़ मरने की ,
वजह मिल गई है |
जाना है मुझे जहाँ ,
वह जगह मिल गई है |

है विशाल यह लक्ष्य पर ,
इससे ही मुझे शक्ति मिलती है |
कुछ कर गुजरने की अलख ,
मुझमें हरदम जलती है |

सच , इससे ही मेरा जीवन ,
पुष्प बन खिला है |
बहुत बदल गया हूँ मैं ,
जबसे मुझे जीवन में ,
एक लक्ष्य मिला है |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

सोमवार, 22 जून 2009

बस सोने आया करता हूँ |

कुछ लिखता हूँ , लिखकर ,
भूल जाता हूँ |
खींच शब्दों के दरिये को ,
उसमें डूब जाता हूँ |

जब तक कलम चलती ,
लिखता , जगता हूँ |
रुकते ही इसके ,
फ़िर सो पड़ता हूँ |

इस दुनिया से इतर ,
एक दुनिया है मेरी |
मैं सुख बस,
उसमें ही पाया करता हूँ |

अक्सर उसमें ही रहता हूँ |
इस दुनिया में तो ,
बस सोने आया करता हूँ |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

दूर भागना चाहता हूँ

मैं आज इस जग से ,
दूर भागना चाहता हूँ |
ख़ुद में उठते सवालों को ,
फूंक डालना चाहता हूँ |

अकेला था , अकेला ही अच्छा हूँ |
मुझे न कोई यार चाहिए |
सूनापन ही फबता मुझको ,
मुझे न कोई प्यार चाहिए |

कबसे हूँ यूँ तनहा , अकेला |
तुमसे नही कह सकता |
इस संसार के आडम्बर पर ,
और नही सह सकता |

इसलिए , ताले में बंद हो चाबी ,
फेंक डालना चाहता हूँ |
मैं आज इस जग से ,
दूर भागना चाहता हूँ |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

शुक्रवार, 19 जून 2009

जीवन किताब |

मेरा जीवन कुछ नही ,
ख़ुद लिखी एक किताब है |
सफलताएं बहुत कम हैं शायद ,
गलतियां बेहिसाब हैं |

धीरे धीरे इस किताब में ,
कितने किरदार जुड़ते जाते हैं ?
दिन आते , दिन जाते ,
पन्ने बढ़ते जाते हैं !

कभी जो इसे उठाकर ,
मैं पन्ने पलटता हूँ |
यादों के दरिये में ,
मैं डूबता उतरता हूँ |

खतम हो यह किताब ,
अभी वहां नही पहुँचा हूँ |
हाँ , पर इसके कई अध्याय ,
मैं ज़रूर लिख चुका हूँ |

पढ़कर इसको लगता ,
फ़िर से सब जी रहा हूँ |
अमृत सा जीवन रस ,
मस्त हो पी रहा हूँ |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

बुधवार, 17 जून 2009

सपने !

जो कभी देखे थे मैंने ,
वे सपने अब भी नए हैं |
बढ़ते बढ़ते अब मेरा ,
एक हिस्सा बन गए हैं |

जो होता , करता , लिखता हूँ ,
सब पर इनका प्रभाव है |
सपने देखना , सच करने की कोशिश करना ,
अब मेरा स्वभाव है |

इनके बिना जीवन में ,
मज़ा भी तो कुछ नहीं |
मानूँ तो बहुत कुछ है इनमें ,
न मानूँ तो कुछ नहीं |

इन सपनों के खातिर जीना ,
सच, कितना अच्छा होता है |
पाँव जमीं पर पड़ते नहीं ,
जब कोई सपना सच्चा होता है |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

मंगलवार, 16 जून 2009

हीरा बनना है !

दिन रात चलता चलता ,
अब रुक सा गया हूँ
शायद इन रास्तों के आगे ,
झुक सा गया हूँ

धीरे धीरे मेरा ,
वेग छूटता जा रहा
और थककर मेरा ,
शरीर टूटता जा रहा

अभी तो सफर मेरा ,
हुआ नही आधा भी
पर मुझसे अब आगे ,
और चला जाता नही

फ़िर भी उठता हूँ , चलता हूँ
यूँ हारकर बैठना ,
महानता का काम नहीं
मुझे तो हीरा बनना है ,
कोई कोयला आम नहीं

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

रविवार, 7 जून 2009

वो कौन है ?

वो कौन है ,जो बिना कहे ,
आपकी सब बात जानती है ?
वो कौन है , जो सबसे अच्छा ,
बस आपको मानती है ?

वो कौन है , जिसने हमेशा आपको ,
अपने आँचल में ढका रखा है ?
वो कौन है , जिसने आपके लिए ,
कुछ न कुछ बचा रखा है ?

वो कौन है , जिसने रात रात भर ,
जाग आपकी सेवा की है ?
वो कौन है , जिसकी खुशी ,
आपकी खुशी ही है ?

वो कौन है , जिसकी ममता का ,
कोई ओर छोर नहीं ?
वो कौन है , जिसके प्रेम में ,
संगीत है शोर नहीं ?

कभी अपना बचपन ,
जो आप याद करेंगे
वो कौन है , इसका उत्तर ,
सहज प्राप्त करेंगे

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

शनिवार, 6 जून 2009

मैं चुप हूँ

कभी अपने आस पास देखकर ,
मूल्यों का होता ह्रास देखकर ,
और इतना विरोधाभास देखकर ,
मैं चुप हूँ |

क्या कहूँ , क्या लिखूं ,
हर परम्परा , हर रस्म छूटती जा रही |
सभ्यता है जो बची कुची ,
सब टूटती जा रही |

अपनापन छोड़ किनारे ,
हम क्या बनते जा रहे हैं ?
गन्दगी जमा हो रही समाज में ,
और हम सनते जा रहे हैं |

होना चाहिए अभिमान जिस पर ,
उसका हमें अफ़सोस है |
कितने धनी रहे हैं हम ,
इसका हमें होश है ?

इन सब बातों का,
हिस्सा मैं भी तो हूँ |
तभी किसका दोष है इसमें ?
इसपर मैं चुप हूँ |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"