शनिवार, 6 जून 2009

मैं चुप हूँ

कभी अपने आस पास देखकर ,
मूल्यों का होता ह्रास देखकर ,
और इतना विरोधाभास देखकर ,
मैं चुप हूँ |

क्या कहूँ , क्या लिखूं ,
हर परम्परा , हर रस्म छूटती जा रही |
सभ्यता है जो बची कुची ,
सब टूटती जा रही |

अपनापन छोड़ किनारे ,
हम क्या बनते जा रहे हैं ?
गन्दगी जमा हो रही समाज में ,
और हम सनते जा रहे हैं |

होना चाहिए अभिमान जिस पर ,
उसका हमें अफ़सोस है |
कितने धनी रहे हैं हम ,
इसका हमें होश है ?

इन सब बातों का,
हिस्सा मैं भी तो हूँ |
तभी किसका दोष है इसमें ?
इसपर मैं चुप हूँ |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

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