गुरुवार, 25 जून 2009

एक लक्ष्य मिला है |

जबसे मुझे जीवन में ,
एक लक्ष्य मिला है |
रख रखकर देखा ख़ुद को इसमें ,
वह मनोहर दृश्य मिला है |

अब घिसने की , लड़ मरने की ,
वजह मिल गई है |
जाना है मुझे जहाँ ,
वह जगह मिल गई है |

है विशाल यह लक्ष्य पर ,
इससे ही मुझे शक्ति मिलती है |
कुछ कर गुजरने की अलख ,
मुझमें हरदम जलती है |

सच , इससे ही मेरा जीवन ,
पुष्प बन खिला है |
बहुत बदल गया हूँ मैं ,
जबसे मुझे जीवन में ,
एक लक्ष्य मिला है |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

3 टिप्‍पणियां:

  1. डबराल जी, एक अच्छी रचना है, बुरा न माने तो एक बात कहूँगा( क्या करू यार, सजेसन देने की पुरानी बीमारी है) आप में काव्य की प्रखरता है लेकिन उसे सदा सिर्फ एक ही रूप में ढालना, मैं समझता हूँ उचित नहीं ! मसलन, भले ही आप बहुत स्वादिष्ट खिचडी बनाना जानते हो, लेकिन अगर आप रोज खाने में खिचडी ही रखे तो एक दिन उससे उकता जायेंगे ! अब मुख्य धारा में आता हूँ, मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि आपमें एक अच्छे रचनाकार के पूरे लक्षण है, आप सिर्फ एक ही ढर्रे पर अथवा शैली में न लिखकर उसे कभी कभार भिन्न तरह से नज्म, गजल, हास्य और व्यंग्य के तौर पर भी प्रस्तुत करने की कोशिश करे !

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  2. koshish karunga maanyavar
    dhanyavaad aapke sujhaav ke liye

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